गीत्वा च मम नामानि रुदन्ति मम सन्निधौ ।
तेषामहं परिक्रीतो नान्यक्रीतो जनार्दनः ॥
(आदिपुराण)
‘जो मेरे नामों का गान करके मेरे समीप प्रेम से रो उठते हैं, मैं उनका खरीदा हुआ दास हूँ, यह जनार्दन दूसरे किसी के हाथ नहीं बिका है।’ भगवान् के श्रीमुख से निःसृत ऐसे असंख्य वचन हमें शास्त्रों में प्राप्त होते हैं। भगवान् के नाम विशेष का जप-कीर्तन अथवा नामात्मक स्तोत्रों का श्रद्धा-भक्ति के साथ पठन-गायन करने से साधक का परम कल्याण सम्भव है। इसीलिये स्तोत्रों में सहस्त्रनामस्तोत्रों के पाठ का अपरिमित माहात्म्य शास्त्रों में वर्णित है। पूजन के अन्तर्योग-पंचांग (पटल, पद्धति, कवच, स्तोत्र, सहस्त्रनाम) में भी सहस्त्रनाम अनिवार्य है।
प्रायः सभी देवी-देवताओं के अनेक सहस्त्रनामस्तोत्र पुराण एवं आगम वाड्मय में प्राप्त होते हैं।
पुराण- पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु के अनेकानेक सहस्त्रनामस्तोत्र महाभारत, पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, शाक्तप्रमोद इत्यादि ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। उन्हीं भगवान् पुरुषोत्तम का एक विशिष्ट प्राचीन सहस्त्रनामस्तोत्र है—‘श्रीपुरुषोत्तमसहस्त्र नामस्तोत्रम्’। इस स्तोत्र की अद्भुत विशेषता यह है कि इसमें वेदरूपी कल्पवृक्ष के परिपक्व फल ‘निगमकल्पतरोर्गलितं फलं’ (पद्मपुराण उत्त ६ । ८० ) अर्थात् श्रीमद्भागवतमहापुराण के प्रथम स्कन्ध से अन्तिम स्कन्ध तक वर्णित भगवान् पुराणपुरुषोत्तम विष्णु की दिव्यातिदिव्य लीलाओं के आधार बने नामों को ही स्तोत्र के रूप में निबद्ध किया गया है। अतएव इसका पाठ करने से श्रीमद्भागवत में वर्णित भगवान्की मधुर-मनोहर लीलाओं के समस्त चित्र श्रद्धालु पाठकों के हृदयपटलपर बरबस ही सजीव हो उठते हैं।
श्रीमद्भागवतसारसमुच्चयरूपी यह पुरुषोत्तमसहस्त्रनामस्तोत्र वैश्वानरप्रोक्त है। ऋग्वेदानुसार अग्निदेव का एक नाम वैश्वानर भी है, जैसा कि सहस्त्रनाम में आये पद्यात्मक विनियोग आदि में भी स्पष्ट है – ‘कृष्णनामसहस्रस्य ऋषिरग्निनिरूपितः। गायत्री च तथा छन्दो देवता पुरुषोत्तमः ॥’ अन्यत्र इसे विष्णुयामलतन्त्र के अन्तर्गत भी बताया गया है। उल्लेखनीय है कि वामकेश्वर तत्र के अनुसार विष्णुयामल तन्त्र की गणना चौंसठ तन्त्र-ग्रन्थों में की गयी है। वहाँ यमलाष्टक में विष्णुयामल को परिगणित किया गया है। कई शताब्दी पूर्व महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी ने इस पुरुषोत्तम सहस्त्रनामस्तोत्र को पुनः प्रचारित किया। इसका पठन एवं मननकर भक्तजन सहज में अद्भुत भगवल्लीलारस का आस्वादन कर सकेंगे, ऐसी आशा है।
पुरुषोत्तममास में पुरुषोत्तमसहस्त्रनामस्तोत्र का पाठ आदि करके भगवान्की विशेष प्रीति प्राप्त की जा सकती है, कारण भगवान् विष्णु के पूजन हेतु सभी मासॉ में पुरुषोत्तममास ( अधिमास अथवा मलमास ) अत्यन्त विशिष्ट है। भगवान् नारायण ने स्वयं कहा है
मासा: सर्वे द्विजश्रेष्ठसूर्यदेवस्यसंक्रमाः । अधिमासस्त्वसंक्रान्तिर्मासोऽसौ शरणं गतः ॥
मम प्रियतमोऽत्यन्तं मासोऽयं पुरुषोत्तमः । अस्याहं सततं विप्र स्वामित्वे पर्यवस्थितः ॥
(पद्मपुराण, पुरुषोत्तममासमा० १७।१४-१५)
हे द्विजश्रेष्ठ! सभी माह सूर्यदेव की संक्रान्ति के कारण होते हैं, परंतु अधिकमास में संक्रान्ति नहीं हुई। इसलिये वह मेरी शरण में आया है। तभी से यह पुरुषोत्तममास मुझे अत्यन्त प्रिय है। हे विप्र! मैं सदैव इस पुरुषोत्तममास के स्वामी कै रूप में प्रतिष्ठित रहता हूँ। आगे भगवान् कहते हैं –
‘नालभ्यं दृश्यते किञ्चिन्मत्प्रिये पुरुषोत्तमे’
(पद्मपुराण, पुरुषोत्तममासमा० १७।२२) ।
मेरे प्रिय पुरुषोत्तममासमें जप आदि करनेसे संसारमें कोई वस्तु अलभ्य नहीं रहती।
पुराणपुरुषोत्तम भगवान् विष्णु के उपर्युक्त वचनों से सहज स्पष्ट है कि पुरुषोत्तममास में उनके सहस्त्रनामों के पाठ का विशेष माहात्म्य है । सहस्रनामों के द्वारा सहस्त्रनामार्चन की प्राचीन परम्परा है। भगवान् पुरुषोत्तम विष्णु का सहस्त्रनामार्चन प्रायः तुलसीदलद्वारा किया जाता है। शालग्रामशिला का पंचामृत द्वारा स्नान तथा भगवान् नारायण की प्रतिमा के दुग्धाभिषेक की परम्परा भी है पूजन में सुविधा हेतु पुरुषोत्तमसहस्त्रनामस्तोत्र की नामावली भी दी गयी है। ।
पुराणपुरुषोत्तम भगवान् विष्णु की प्रीति प्राप्त करने तथा निष्काम भाव से भक्तिपूर्वक सहस्त्रनामस्तोत्र का पाठ एवं सहस्त्रार्चन अनन्त फलदायक होता है।
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