श्रुति कहती है-सृष्टिके पूर्व न सत् (कारण) था, न अस् (कर्य); केवल एक निर्विकार शिव ही विमान थे।” अ: जो वस्तु सृष्टि के पूर्व हो, वही जग कारण है और जो जगतका कारण है, वही ब्रह्म है। इससे यह बात सिद्ध होती है कि ब्रह का ही नाम ‘शिव’ है। ये शिव नित्य और अजन्मा है, इनका आदि और अन्त न होनेसे ये अनादि और अनन्त हैं। ये सभी पवित्र करनेवाले पदार्थोंको भी पवित्र करनेवाले हैं। इस प्रकार भगवान् शिव सर्वोपरि परात्पर तत्व हैं अर्थात् जिनसे परे और कुछ भी नहीं है-‘यस्पात् परं नापरमस्ति किब्चित्।”
भगवान् शंकरके चरित्र बड़े ही उदात्त एवं अनुकम्पापूर्ण हैं। ये ज्ञान, वैराग्य तथा साधुताके परम आदर्श हैं। चन्द्र-सूर्य इनके नेत्र हैं, स्वर्ग सिर है, आकाश नाभि है, दिशाएँ कान हैं। इनके समान न कोई दाता है, न तपस्वी है, न ज्ञानी है, न त्यागी है, न वत्ता है, न उपदेष्टा और न कोई ऐश्वर्यशाली ही है। ये सदा सब वस्तुओंसे परिपूर्ण हैं।
भगवान् शिवके विविध नाम हैं। उनके अनेक रूपोंमें उमामहेश्वर, अर्धनारीश्वर, हरिहर, मृत्युंजय, पंचवक्त्र, एकवक्त्र, पशुपति, कृत्तिवास, दक्षिणामूर्ति, योगीश्वर तथा नटराज आदि रूप बहुत प्रसिद्ध हैं। भगवान् शिवका एक शिष्ट रूप लिंग रूप भी है, जिनमें ज्योतिर्लिंग, स्वयम्भूलिंग, नर्मदेश्वरलिंग और अन्य रत्नादि तथा धात्वादि लिंग एवं पार्थिव आदि लिंग हैं। इन सभी रूपोंकी स्तुति-उपासना तथा कीर्तन भक्तजन बड़ी श्रद्धाके साथ करते हैं।
भूतभावन भगवान् सदाशिवकी महिमाका गान कौन कर सकता है ? किसी मनुष्यमें इतनी शक्ति नहीं, जो भगवान् शंकरके गुणोका वर्णन कर सके। परम तत्त्वज्ञ भीष्मपितामहसे नीति, धर्म और मोक्षके सूक्ष्म रहस्योंका विवेचन सुनते हुए महाराज युधिष्ठिरने जब शिवमहिमाके सम्बन्धमें प्रश्न किया तो वृख पितामहने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा
“साक्षात् विष्णुके अवतार भगवान् श्रीकृष्णके अतिरिक्त मनुष्य, सामर्थ्य नहीं कि वह भगवान् सदाशिवकी महिमाका वर्णन कर सके।’
भीष्मपितामहके प्रार्थना करनेपर भगवान् श्रीकृष्णने भी यही कहा-
‘हिरण्यगर्भ, इन्द्र और महर्षि आदि भी शिवतत्त्व जानने में असमर्थ हैं, मैं उनके कुछ गुणोंका ही व्याख्यान करता हूँ’-ऐसी स्थितिमें हम जैसे तुच्छ जीवोंके लिये तो भगवान् शिवकी महिमाका वर्णन करना एक अनधिकार चेष्टा ही कही जायगी, किंतु इसका समाधान श्रीपुष्पदन्ताचार्यने अपने शिवमहिम्न: स्तोत्र आरम्भमें ही कर दिया है
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी स्तुतिर्जृह्ादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।
अधावाच्य: सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्মমাप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ॥
यदि आपको महिमाको पूर्णरूपसे बिना जाने स्तुति करना अनुचित हो तो ब्रह्मादिकी वाणी रुक जायगी और कोई भी स्तुति नहीं कर सकेगा; क्योंकि आपकी महिमाका अन्त कोई जान ही नहीं सकता। अनन्तका अन्त कैसे जाना जाय ? तब अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार जो जितना समझ पाया है, उसे उतना कह देनेका अधिकार दूषित नहीं ठहराया जाय तो मुझ जैसा तुच्छ जीव भी स्तुतिके लिये कमर क्यों न कसे ? कुछ तो हम भी जानते ही हैं, जितना जानते हैं, उतना क्यों न कहें! आकाश अनन्त है, सृष्टिमें कोई भी पक्षी ऐसा नहीं जो आकाशका अन्त पा ले, किंतु इसके लिये वे उड़ना नहीं छोड़ते, प्रत्युत जिसके पक्षोंमें जितनी शक्ति है, उतनी उड़ान वह आकाशमें भरता है। हंस अपनी शक्तिके अनुसार उड़ता है और कौआ अपनी शक्तिके अनुसार। यदि वे नहीं उड़ें तो उनका पक्षी-जीवन ही निरर्थक हो जाय। इसी प्रकार अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार अनन्त शिवतत्त्वको जितना समझ सके, उतना समझते हुए और उसका मनन करते हुए परमात्म-प्रभु सदाशिवकी महिमा और उनके गुणोंका गान किये बिना शिवभक्त रह नहीं सकते।’
इस पुस्तक में भगवान् शंकर की स्तुति, सहस्रनाम, आरती और उनसे सम्बन्धित स्तोत्रोंको एक स्थानपर संगृहीत किया गया है , जिससे भक्तजनोंको पठन पाठन, कीर्तन और मनन करनेमें सुविधा हो।
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