श्रीस्वच्छन्दतन्त्रम् Sri Swachand Tantram (Vol.1-5)

Current price is: ₹2,760.00. Original price was: ₹3,450.00.

Sri Swachand Tantram  (with Hindi translation) Published by Sampuranand Sanskrit University, Varanasi

श्रीस्वच्छन्दतन्त्रम् ( भाग १ -५ ) (Set of 5 Parts)

सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी

यह भैरवभाव वह समुद्र है, जो अतलान्तक महासागर की तरह शश्वत्समुच्छलित है। यह संसार उसी महासमुद्र की सृष्टि-संहारमयी लहरिकाओं की लीला का लास है। इसकी पूर्ण अनुभूति के लिये स्वच्छन्दतन्त्र का स्वाध्याय अनिवार्यतः आवश्यक है। इसके स्वाध्याय से समस्त अज्ञानजन्य अन्धकार का विनाश हो जाता है, यह अनुभूत सत्य है।

समस्त मन्त्रों और तन्त्रों या यन्त्रों की जननीरूपा ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ पर्यन्त व्याप्ता ५० वर्णों में उल्लसिता मातृका शक्ति की गोद में अज्ञ प्राणियों की
क्रिया का प्रवर्त्तन होना चाहिए। मातृकातत्त्व में सारा पिण्ड-ब्रह्माण्ड और विज्ञान का सारतत्त्व पूरी तरह निहित है। इस मातृका शक्ति के पचास वर्णों में ५० रुद्र शक्ति, ५० बिन्दु और ५० उनके भर्ग व्याप्त हैं। यह भारतवर्ष की मूल विद्या है और ‘भर्गशिखा’ शास्त्र में इसका पूरी तरह उल्लेख है।

Total Pages : 1995

Sri Swachand Tantram  Published by Sampuranand Sanskrit University, Varanasi

YOGATANTRA-GRANTHAMĀLĀ [Vol. 32]

ŚRĪSWACHANDTANTRĀM

With the Commentary ‘VIVEKA’ BY ACARYA ŚRĪ JAYARATHA ‘NĪRAKŞĪRAVIVEKA’| BY DR. PARAMHANS MISHRA ‘HANS’

FOREWORD BY PROF. RAMMURTI SHARMA VICE-CHANCELLOR| EDITED BY DR. PARAMHANS MISHRA ‘HANS’

सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी

महामाहेश्वराचार्यश्रीक्षेमराजकृतोद्द्योतसहितं

नीरक्षीरविवेकहिन्दीभाष्योपबृंहितञ्च

श्रीस्वच्छन्दतन्त्रम् ( भाग १ -५ )

कुलपते: प्रो. राजेन्द्रमिश्रस्य प्रस्तावनया विभूषितम्

हिन्दीभाष्यकार: सम्पादकश्च  डॉ. परमहंसमिश्रः ‘हंसः’

स्वात्म-विमर्श
स्वच्छन्दतन्त्र के भाष्य का यह प्रयास स्वात्ममहेश्वर देशिक के आदेश की ही अभिव्यक्ति है। वस्तुतः स्वातन्त्र्य से समन्वित विश्वात्मा का यह उल्लास है।
विश्वमयता के रूप में यह सुव्यक्त है। स्वतन्त्र भट्टारक भैरव की आराधना का अर्घ्य है। भगवती भारती ने मुझे इसमें समायोजित किया है ।

उस असीम अनुकम्पा के अमृत से अभिषिक्त होने का यह सौभाग्य मुझे मिला है। इसका मुझे हर्ष है। सर्व- प्रथम उस विश्वरूप विश्वात्मा की अभिमर्शमयी शक्ति-सुधा से मैं इस विश्व को अभिषिक्त करना चाहता हूँ, जिसमें रहकर मैं सार्वात्म्य का साक्षात्कार कर रहा हूँ।

मैं चाहता हूँ-वैषम्य से विषाक्त जीवन की घुटन में पड़ा, पारस्परिक विद्वेष और घृणा से घिरा यह वर्तमान मानव, अभेद अद्वय भैरवभाव की अमृत माधुरी को पिये और विजयिनी मानवता की मनोज्ञता में रम कर जागरूकता का जीवन जिये। पर- प्रकाशवपुष् परमेश्वर का वरदान प्राप्त कर उदात्त वैचारिक विज्ञान के दिये जलाये।

यह भैरवभाव वह समुद्र है, जो अतलान्तक महासागर की तरह शश्वत्समुच्छलित है। यह संसार उसी महासमुद्र की सृष्टि-संहारमयी लहरिकाओं की लीला का लास है। इसकी पूर्ण अनुभूति के लिये स्वच्छन्दतन्त्र का स्वाध्याय अनिवार्यतः आवश्यक है। इसके स्वाध्याय से समस्त अज्ञानजन्य अन्धकार का विनाश हो जाता है, यह अनुभूत सत्य है।

मैंने इसका मनोयोगपूर्वक परिशीलन किया है और अपने साधना-निकष पर निकषायित भी किया है। मेरे हर्ष का उस समय आर- पार नहीं होता था, जब मेरी चेतना का चामीकर इस तन्त्र की कसौटी पर खरा प्रमाणित होता था। इस सन्दर्भ में यह कहना भी आवश्यक है कि, साधना के ये सन्दर्भ पूरी
कर्मकाण्ड की पुनरुक्तिमयी प्रक्रिया में मणि-काञ्चन माला की मणियों की तरह पिरोये गये हैं।

सारा ग्रन्थ प्रक्रियामय है। फिर भी अनुभूतियों के स्वर्ण को तप्तदिव्यकाञ्चन बनाने के लिये इस प्रकाशराशि का निरन्तर प्रयोग आवश्यक है। कर्मकाण्डी के लिये इसमें कर्मकाण्ड के सविधि प्रयोग हैं और साधक के लिये बीच-बीच में साधना का स्वारस्य भी निहित है।

कैलास के शिखर पर आसीन भैरव भट्टारक की भक्तिपूर्वक वन्दना कर देव- वर्ग बैठ चुका था। इस देवसभा में चण्ड, नन्दि, महाकाल गणेश, वृष, भृङ्गी, स्वयं कुमार षडानन, इन्द्र, यम, आदित्य, ब्रह्मा, विष्णु सभी उपस्थित थे। वार्तालाप और सामान्य समुदाचार के बाद स्वयं सर्वेश्वरी शक्ति की प्रतीक देवी भैरवी ने भगवान् भैरव भट्टारक के समक्ष अपनी जिज्ञासा को प्रश्न के रूप में प्रस्तुत किया है।

समस्त मन्त्रों और तन्त्रों या यन्त्रों की जननीरूपा ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ पर्यन्त व्याप्ता ५० वर्णों में उल्लसिता मातृका शक्ति की गोद में अज्ञ प्राणियों की
क्रिया का प्रवर्त्तन होना चाहिए। मातृकातत्त्व में सारा पिण्ड-ब्रह्माण्ड और विज्ञान का सारतत्त्व पूरी तरह निहित है। इस मातृका शक्ति के पचास वर्णों में ५० रुद्र शक्ति, ५० बिन्दु और ५० उनके भर्ग व्याप्त हैं। यह भारतवर्ष की मूल विद्या है और ‘भर्गशिखा’ शास्त्र में इसका पूरी तरह उल्लेख है।

मातृका के पचास वर्णों में १६ स्वर और ३४ व्यञ्जन हैं। स्वर बीज भैरव वर्ण और व्यञ्जन योनिवर्ण हैं। वीर्य और योनि के मेलापक रूप ही सभी शास्त्र
हैं। इन्हीं पर आधारित यज्ञ-यागादि और तन्त्र-मन्त्र भी हैं। अतः याग के प्रारम्भ में इस प्रस्तार का सविधि प्रयोग करने से अभिनव भैरवीय भाव की संभूति हो जाती है।
याग में इन वर्णों के स्वर प्रस्तार तथा व्यञ्जन प्रस्तार में इन वर्णों के देवों और देवी शक्तियों की पूजा प्राथमिक कर्त्तव्य के रूप में स्वीकृत की गयी है।
पूजा की यह विधि सभी शरीरस्थ चक्रों की साधना के समान है। इसे आचार्य क्षेमराज ने अपनी व्याख्या में पूरी तरह से स्पष्ट किया है।

मैंने भी अपनी नित्य की साधना विधि के सन्दर्भ के साथ इस पर पूरा प्रकाश डाला है। इसके बाद जिस अघोर मन्त्र की साधना के सन्दर्भ में भैरवभाव की तथा भैरवोत्सङ्गगामिनी भैरवी की पूजा का निर्देश है, वह पूरी तरह वर्ण-विज्ञान पर आश्रित और आधृत वैज्ञानिक प्रक्रिया की तरह प्रतिपादित है।

इसी सन्दर्भ में सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष और ईशान के भैरव मुखों, उनकी शक्तियों और उनके न्यासादि प्रयोग की विशद चर्चा की गयी है। विद्यांगों के महत्त्व पर भी प्रकाश डाला गया है। इसके बाद भैरवराज, अघोरेश्वरी, कपालेश शिखिवाहन, विकराल, मन्मथ, मेघनादेश्वर और विद्याराज मन्त्रों की विशद व्याख्या की गयी है। उनके प्रयोग एवं फल की चर्चा भी उसी प्रसङ्ग में की गयी है। भैरवाष्टक मन्त्रों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भैरव विद्याराज मन्त्र ही है। इसके साथ लोकपालाष्टक मन्त्र भी प्रतिपादित हैं।

इन उपर्युक्त दृष्टियों से इस पटल की मन्त्रोद्धार संज्ञा पूरी तरह चरितार्थ है।
इन मन्त्रराजों का साधक के जीवन में महत्तम महत्त्व है। यागरूपी जीवन की भूमिका
में इनका आयोजन पूर्णतया सार्थक और आवश्यक है।

Weight 4300 g
Dimensions 16.5 × 14.5 × 25 cm

Brand

Sampurnanand Sanskrit University

Reviews

There are no reviews yet.

Be the first to review “श्रीस्वच्छन्दतन्त्रम् Sri Swachand Tantram (Vol.1-5)”
Review now to get coupon!

Your email address will not be published. Required fields are marked *