Brihatparasharhorashashtram बृहत्पराशरहोराशास्त्रम

325.00

Brihart Parashar Horashastram

महर्षिपराशरप्रणीतम्

बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम्

‘प्रज्ञावर्द्धिनी’ अभिनव हिन्दीव्याख्यया श्लोकानुक्रमणिका च संवलितः

टीकाकार: सम्पादकश्च डॉ. सत्येन्द्र मिश्रः

समस्त जातकग्रन्थों में यह विलक्षण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में जितने विषय उक्त हैं उतने विषय अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं हैं। एक यहीं ग्रन्थ “गागर में सागर” तुल्य हैं क्योंकि मात्र एक इसी ग्रन्थ का अध्ययन कर होरास्कन्ध के समस्त विषयों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है महर्षि ने अपनी अतीन्द्रिय ज्ञानवैभव से इस ग्रन्थ को रचा है। ज्योतिष के होरा (फलित) स्कन्ध के इस ग्रन्थ के विषय में इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि “यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्”

इस ग्रन्थ में जो दुरुहस्थल हैं उन्हें चक्र सारणियों के द्वारा स्पष्ट करके समझा दिया गया है जिससे कि पाठकवर्ग को विषयज्ञान में सौविध्य हो इस ग्रन्थ के अन्त में श्लोकानुक्रमणि भी दे दी गई है जो कि आज तक किसी भी प्रकाशित प्रति में नहीं थी, यह प्रति छात्रवर्ग एवं शोधकर्त्ताओं के लिए लाभकर रहेगी।

Pages : 616

sri kashi vedic sansthan

 Brihart Parashar Horashastram

महर्षिपराशरप्रणीतम्

बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम्

‘प्रज्ञावर्द्धिनी’ अभिनव हिन्दीव्याख्यया श्लोकानुक्रमणिका च संवलितः

टीकाकार: सम्पादकश्च डॉ. सत्येन्द्र मिश्रः

प्रस्तुतग्रन्थ ‘कलो पाराशरी स्मृताः के अनुसार सम्पति इस कलिकाल में महर्षि पराशर प्रणीत यह होरा शास्त्र ही सर्वोत्कृष्ट व प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। महर्षि पराशर का ‘वर्तमान’ किस कालखण्ड में रहा है यह कहना दुष्कर है क्योंकि कोटिल्य के अर्थशास्त्र में इनका उल्लेख है, वराहमिहिर ने भी इनका नामोल्लेख किया है। वृहदारण्यक के तैतिरीयारण्यक में भी इनका नामोल्लेख मिलता है निरुक्त में यास्क ने भी इनका नामोल्लेख किया है। अग्निपुराण में भी इनका नाम आया है महाभारत में भी इनसे सम्बन्धित आख्यान मिलते हैं।

पराशर ऋषि के दो ग्रन्थ सम्पति उपलब्ध होते हैं- १. लघुपाराशरी २. बृहत्पाराशर यह ग्रन्थ पूर्व में पाराशरहोरा नाम से ही विख्यात रहा होगा परन्तु अति विस्तृत होने के कारण इसे बृहत्पाराशर कहा जाने लगा । इस ग्रन्थ में लग्नसाधनार्थ अयनांशसाधन की विधि नहीं दी गई है जबकि फलितशास्त्र के समय बिन्दुओं पर विचार किया गया है इससे यह सिद्ध होता है कि अयन चलन ज्ञान से पूर्व ही इस ग्रन्थ की रचना हुई थी। यह विपुलकाय ग्रन्थ शताध्यायी नाम से भी विख्यात परन्तु यत्र-तत्र प्रकाशित प्रतियों में १०१ या ९९ या ९८ अध्याय भी मिलते हैं और वे (अध्याय) श्लोक संख्या में भी न्यूनाधिक है। प्राचीन काल में कागज इत्यादि की कमी से ऋषिप्रणीत वेद-वेदाङ्ग के ग्रन्थ ‘श्रुतिपरम्परा से ही संरक्षित होते थे। उसी क्रम में यह ग्रन्थ भी श्रुतिपरम्परा से ही संरक्षित होता रहा। गुरु-शिष्य की इसी श्रुतिपरम्परा के क्रम में इसमें पाठ भेद भी होता गया जो आजकल यत्र-तत्र प्रकाशित प्रतियों में दृष्टिगोचर होता है। विडम्बना यह है कि सभी प्रतियों में यहाँ लिखा मिलता है कि यहाँ प्रति मूलमन्थ है अन्य नहीं, इसे कोई नहीं छाप सकता। सभी लेखकों ने महर्षि पाराशर को अपना वृद्ध-वृद्धतर-वृद्धतम प्रपितामहादि मानते हुए अपने पति को ही पराशरप्रणीत घोषित किया है जो कि इस महनीय ग्रन्थ के साथ एक हास्यास्पद उक्तिमात्र है और कुछ नहीं श्रुतिपरम्परा के कारण इसके पाठ में कुछ “भेद होना स्वाभाविक है

अत: ऐसे में अमुकप्रति ही असली है यह कहना या लिखना ज्योतिष के विद्वानों के लिए शोभनीय नहीं कहा जा सकता। इससे अन्य शास्त्र के विद्वान समक्ष ज्योतिषशास्त्र एवं ज्योतिषियों को प्रतिष्ठा धूमिल होती है। ऐसी स्थिति में प्रति अधिक स्थानों में प्रकाशित हो यहाँ सर्वशुद्ध व प्रमाणित मानी जानी चाहिए प्रस्तुत प्रति उन्हीं अधिकाधिक स्थानों में प्रकाशित प्रतियों के आधार पर है । य एकबात स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि सर्वत्र की घनिया में कालचक्रदशाफलाध्या एवं कालचक्रनवाशद फलाध्याय संज्ञक दो अध्याय कहे गये है जबकि दोन अध्यायों में एक ही विषय व एक्तपद के हो इनाक है। इस बात को अनदेखी कर हुए सभी अन्धकारी ने इन दोनों अध्यायों को अपनी अपनी कृतियों में समाहित किय है जो कि एक त्रुटि है, इस त्रुटि को प्रस्तुत प्रति में दूर कर दिया गया है इसग्रन्थ अध्याय एवं श्लोकों में आगे चलकर कोई परिवर्तन न हो इसके लिए श्लोकानुक्रमि भी दे दी गई है। इस कार्य में इसकी शोकसंख्या सुनिश्चित हो जायेगी और श्लोक को ढूंढने में सुविधा भी होगी |

Weight 616 g
Dimensions 22 × 13.5 × 2.75 cm

Brand

Sri Kashi Vedic Sansthan

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