1300 Mahakumbh Parv by Gita Press, Gorakhpur
‘चतुरः कुम्भांश्चतुर्धा ददामि।
मानव-जीवन का परम एवं चरम लक्ष्य है-अमृतत्व की प्राप्ति। अनादिकाल से अमृतत्व से विमुख मनुष्य उसी अमृतत्व की खोज में सतत प्रयत्नशील है। क्यों न हो! उसे जो स्वतः प्राप्त है, किन्तु अपने ही द्वारा की गयी भूल के कारण वह उससे विमुख हुआ है। वेद, पुराण, इतिहास, ऋषि और महर्षि उसी परम लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने के लिये निरन्तर पथ प्रदर्शक की भूमिका का निर्वाह करते आये हैं।
मनुष्य के अचेतन मन में दैवी एवं आसुरी दोनों प्रवृत्तियाँ विद्यमान रहती हैं, जो अवसर पाकर उद्दीप्त हो उठती हैं। फलस्वरूप दैव तथा इसके विपरीत आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों में सतत संघर्ष होते रहते हैं। परन्तु आसुरी प्रवृत्तियाँ चाहे जितनी भी सबल क्यों न हों, अन्त में विजय श्री दैवी प्रकृति वालों का ही वरण करती है; क्योंकि हमारी संस्कृति का ध्रुवसत्य सिद्धान्त है- ‘सत्यमेव जयते’।
पुराण वर्णित देवासुर संग्राम एवं समुद्र-मन्थन द्वारा अमृत-प्राप्ति के आख्यान से यह स्पष्ट होता है कि भगवान्ने स्वयं मोहिनी रूप धारण कर दैवी प्रकृति वाले देवताओं को अमृत-पान कराया था। अमृत-कुम्भ की उत्पत्ति विषयक उक्त आख्यान के परिप्रेक्ष्य में भारतवर्ष में प्रति द्वादश वर्ष में हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में कुम्भ-पर्व का आयोजन होता रहता है।
कुम्भ-पर्व के माहात्म्य को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि ‘कुम्भ-पर्व में जाने वाला मनुष्य स्वयं दान-होमादि सत्कर्मो के फलस्वरूप अपने पापों को वैसे ही नष्ट करता है, कुठार वन को काट देता है। जिस प्रकार गंगा नदी अपने तटों को काटती हुई प्रवाहित होती है, उसी प्रकार कुम्भ-पर्व मनुष्य के पूर्वसंचित कर्मों से प्राप्त हुए शारीरिक पापोंको नष्ट करता है और नूतन (कच्चे) घड़े की तरह बादल को नष्ट-भ्रष्टकर संसार में सुवृष्टि प्रदान करता है’।
कुम्भ पर्व की इसी महीने से अभिभूत होकर प्रायः समस्त भभीवलम्बी अपनी आस्था को हृदय में सँजोये हुए अमृतत्व की लालसा में उन- उन स्थानों पर पहुँचते हैं। विश्व के विपुल जन समुदाय को देखने हुए ऐसा प्रतीत होता है कि मानो अव्यक्त (अमृत) की ही अभिव्यक्ति हुई हो। उस अनल, अव्यक्त अमृत के अभिलाषी इस वर्ष सिंहस्थ कुम्भ, मासिक (ऋथकेश्वर) – में पधार रहे हैं।
साधारण जन मानस भी इस महापर्व के साहात के विषय अनभिज्ञ न रहे, इसी अभाव की पूर्ति की दिशा में प्रस्तुत पुस्तक एक लघु प्रयास है। अल्प साधन एवं समय में किसी बड़े लक्ष्य को प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर कार्य होता है, उसमें भी प्रामाणिकता की कसौटी पर खरा उतरना और भी दुरूह है। किन्तु संसार के प्रायः समस्त शुभ कार्य भगवान्की अहैतु की कृपा से ही सम्पन्न होते हैं, मनुष्य ती एक निमित्रात्र है। प्रस्तुत पुस्तक महाकुम्भ-पर्व’ भी उसी परम प्रभु की अहैतुकी कृपा का ही सुफल है।
प्रस्तुत पुस्तक को यथासामर्थ्य प्रामाणिक बनानका भरसक प्रयास किया गया है। इसकी कथा का आधार स्त्रोत ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, स्कन्दपुराण, शिवपुराण, नारदपुराण, पदमपुराण महाभारत तथा पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़-प्रणीत ‘कुम्भपर्व माहात्म्य’, कल्याण – पत्रिका, हृषीकेश पंचांग तथा चिन्ताहरण पंचांग आदि हैं।
Reviews
There are no reviews yet.