2033 Sanskar Prakash [Importance of Sixteen Rites and Their Methodology] by Gita Press, Gorakhpur
2033 संस्कारप्रकाश [ षोडश संस्कारों का माहात्म्य और उनकी प्रयोग-विधि ] गीता प्रेस, गोरखपुर
संस्कार शब्दका अर्थ ही है, दोषों का परिमार्जन करना। जीवन के दोषों और कमियोंको दूरकर उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थ के योग्य बनाना ही संस्कार करने का उद्देश्य है। शबरस्वामी ने संस्कार शब्द का अर्थ बताया है ‘संस्कारो नाम स भवति यस्मिन् जाते पदार्थों भवति योग्य: कश्चिदर्थस्य।’ अर्थात् संस्कार वह है, जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिये योग्य हो जाता है। तन्त्रवार्तिक के अनुसार ‘योग्यतां चादधानाः क्रियाः संस्कारा: इत्युच्यन्ते।’ अर्थात् संस्कार वे क्रियाएँ तथा रीतियाँ हैं, जो योग्यता प्रदान करती हैं। यह योग्यता दो प्रकारकी होती है-पापमोचन से उत्पन्न योग्यता तथा नवीन गुणों से उत्पन्न योग्यता । संस्कारों से नवीन गुणों की प्राप्ति तथा पापों या दोषों का मार्जन होता है।
संस्कार किस प्रकार दोषोंका परिमार्जन करता है, कैसे-किस रूपमें उनकी प्रक्रिया होती है-इसका विश्लेषण करना कठिन है, परंतु प्रक्रिया का विश्लेषण न भी किया जा सके, तो भी उसके परिणाम को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। आमलक के चूर्ण में आमलक के रज की भावना देने से वह कई गुना शक्तिशाली बन जाता है-यह प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है, संस्कारों के प्रभाव के सम्बन्ध में | यही समझना चाहिये। अदृष्ट बातों के सम्बन्ध में त्रिकालज्ञ महर्षियों के शब्द प्रमाण हैं, श्रद्धापूर्वक उनका पालन करने से विहित फल प्राप्त किया जा सकता है। भगवान् मनुका कथन है
वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्।
कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च॥
‘वेदोक्त गर्भाधानादि पुण्य कर्मो द्वारा द्विज गणों का शरीर संस्कार करना चाहिये। यह इस लोक और परलोक दोनोंमें पवित्र करनेवाला है।’
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