Shiksha Sangrah Sanskrit with Hindi Translation. by Maharishi Vyas Published by Chowkhamba, Kashi
चौखम्बा संस्कृत सीरीज १७६
महर्षियाज्ञवल्क्यादिविरचित: शिक्षासङग्रह: हिन्दी व्याख्या सहित:
व्याख्याता सम्पादकश् प्रो. हरिनारायणतिवारी
विद्यावाचस्पति: ऋग्वेदीयशाङ्खायनशाखाया भाष्यकार
शिक्षा, छन्दः, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष और व्याकरण, ये छह वेदाड्नग माने जाते हैं। हमारे शास्त्रों में चौदह विद्यायें गिनायी गयी हैं। वे हैं-चार वेद, छह शास्त्र, पुराण, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा और न्यायदर्शन। इसके अतिरिक्त दण्डनीतिविद्या, जिसके बल पर न्यायालयों में न्यायव्यवस्था चलती है, धर्मशास्त्र, जिससे हमारे घरों में व्यवस्था चलती है; अर्थशास्त्र जिस के द्वारा बडे-बडे उद्योगों को लगा कर जनता को रोजगार मिलता है, इतिहास, जो वंश का वर्णन करने में प्रवृत्त होता है, जैसे रामायण और महाभारत। गन्धर्ववेद, जो गानविद्या से सम्बन्धित है, योगदर्शन आदि विद्यायें हैं। चौदह विद्याओं का परिगणन करने से वे विद्यायें वेद और उससे सम्बन्धित हैं। चार वेदों में ऋक्, यजुः, साम और अथर्व ये चार वेद मन्त्रभाग और ब्राह्मणभाग के रूप में हैं। मन्त्र और ब्राह्मण के भेदों को मैं ऋग्वेद के अस्यवामीयसूक्त की ४५वीं श्रुति के भाष्य में स्पष्ट कर चुका हूँ:
इसका ज्ञान वहीं से करें। इन विद्याओं के अतिरिक्त चौसठ कलायें भी हैं, जिनका परिगणन मैंने वाक्यपदीयग्रन्थ के नाराण्यभाष्य में कर दिया है। यहाँ ‘वेद का अङ्ग’ ऐसा कहा जा रहा है, यहाँ अङ्ग शब्द का अर्थ है-‘उपकारक’, अवयव अर्थ नहीं है, यह सुधीजन ध्यान रखेंगे।
अतिगम्भीर वेद का अर्थज्ञान के लिए शिक्षा आदि छह अड्ग प्रवृत्त हैं। अतएव आथर्वणिकों ने मुण्डकोपनिषद् में उनके अपर विद्या होने के रूप में वर्णन किया है-
“द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापराच।
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः
शिक्षा कल्पोव्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।
अथ परा यया तदक्षरम् अधिगम्यते” (मु.उप. १.१.४-५) इति।
दो ही विद्याओं को जानने योग्य बताते हैं। उनमें एक परा और दूसरी अपरा है। अपरा विद्या में ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद, शिक्षा, कल्प,
व्याकरण, निरुक्त, छन्दः और ज्योतिष है।
परा विद्या वह है, जिसके द्वारा अक्षर=अविनाशी ब्रह्म का ज्ञान होता है। साधनभूत धर्म का ज्ञान का हेतु होने से छंह अङ्गों सहित कर्म-काण्ड अपरा
विद्या है। परमपुरुषार्थभूत ब्रह्मज्ञान का हेतु होने से उपनिषदों को परा विद्या जाता है। वह शास्त्र, जिसमें वर्ण और स्वर इत्यादि का उच्चारण का ढंग का उपदेश किया गया है, शिक्षा कहलाता है।
जैसा कि तैत्तिरीय-उपनिषद् के आरम्भ में कहते हैं-‘शिक्षां व्याख्यास्यामः । वर्णः । स्वरः । मात्रा। बलम् । सामसन्तानः'(तै.उप.१.१)।
हम शिक्षा का व्याख्यान करेंगे। वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम और सन्तान शिक्षा के विषय हैं, इस तरह शिक्षाध्याय कहा गया है’। अकार आदि वर्ण हैं। उसका अङ्गभूत शिक्षाग्रन्थ में स्पष्ट वर्णन हुआ है-‘त्रिषष्टिश्चतुःषष्टिर्वा वर्णाः शम्भुमते मताः’=शम्भु महादेव के मत में तिरठ अथवा चौसठ वर्ण हैं। प्राकृत और संस्कृत में भी वही कहा गया है-‘उदात्त, अनुदात्त और स्वरित, ये तीन स्वर हैं।
ह्रस्व इत्यादि मात्रा हैं। मात्रा के विषय में भी वही कहा गया है-‘हस्व, दीर्घ और प्लुत, ये मात्रायें काल=समय के नियमानुसार अच्=स्वर में प्रयुक्त होती हैं। स्थान और प्रयत्न को बल कहा गया है। वहाँ –
‘अष्टौ स्थानानि वर्णानामुरः कण्ठः शिरस्तथा।
जिहवामूलं च दन्ताश्च नासिकोष्ठौ च तालु च’।।
(पा.शि.१३)
‘वर्णों के आठ उच्चारणस्थान हैं’ इत्यादि बतलाया गया है। ‘अच् स्पृष्ट है, यण् ईषत्-स्पृष्ट है’ इत्यादि के द्वारा प्रयत्न बताया गया है। साम-शब्द का अर्थ है-‘साम्य-युक्त’। अतिद्रुत, अतिविलम्बित, गीति इत्यादि दोषों से रहित और माधुर्य इत्यादि गुणों से युक्त उच्चारण को साम्य कहा गया है। ‘गीति’ और ‘उपांशु’ के द्वारा दोषों का कथन किया गया है। ‘माधुर्य इत्यादि के द्वारा गुणों का कथन किया
गया है।
सन्तान का अर्थ है-‘संहिता, अर्थात् पदों का अतिशयसन्निधि। ‘वायो आयाहि’ इन दो स्वतन्त्र वैदिक पदों का एक ही वाक्य में साथ-साथ उच्चारण करने पर सन्धि के कारण ‘वायवायाहि’ रूप होगा। यहाँ पर ‘ओ’ के स्थान पर ‘अव्’ आदेश हुआ है। ‘इन्द्राग्नी आगतम्’ में प्रकृतिभाव हुआ है। व्याकरण में इस विषय का विशेष कथन होने से शिक्षा में इस विषय की अपेक्षा नहीं की गयी है। शिक्षा के नियमों के अनुसार वर्णों का शुद्ध उच्चारण न किये जाने पर जो दोष होता है, उसे बताने के लिए उसी शिक्षाग्रन्थ में यह उदाहरण दिया गया है-
‘मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह।
स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति, यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्’॥
जो मन्त्र स्वर अथवा वर्ण से हीन होता है, वह मिथ्याप्रयुक्त होने के कारण अभीष्ट अर्थ का कथन नहीं करता है। वह तो वाग्वज्र बन कर यजमान का नाशकर देता है, जिस तरह स्वर के अपराध से ‘इन्द्रशत्रु’ शब्द यजमान का ही विनाशक बन गया। ‘इन्द्रशत्रुर्वद्धस्व’ इस मन्त्र में विवक्षित अर्थ था कि इन्द्र का शत्रु=शातयिता=घातक बढे। इस तरह इस शब्द से ‘इन्द्रस्य शत्रुः’ यह षष्ठी-तत्पुरुषसमास होना चाहिये था और तत्पुरुष होने पर इस शब्द को ‘समासस्य'(पा.सू.६.१.२२३)
सूत्र से अन्तोदात्त होना चाहिये था। परन्तु ऋत्विजों की असावधानी से अन्तोदात्त के स्थान पर आद्युदात्त का उच्चारण हो गया। ऐसा होने पर ‘बहुव्रीहौ प्रकृत्यापूर्वपदम्’ (पा.सू.६.३.१) के द्वारा पूर्वपद को बहुव्रीहि में प्रकृतिस्वर कर देने से यह बहुव्रीहि बन गया, जिसके कारण अर्थ हो गया-‘इन्द्र है शत्रु=शातयिता जिसका=अर्थात् जिसको इन्द्र मारे, वह इस यज्ञ से प्रकट हो’। यहाँ शत्रुपद क्रियापरक है-‘शत्रु := शातयिता’ ऐसा। इस तरह स्वरदोष से वृत्रासुर मारा गया। अतः स्वर, वर्ण आदि का अपराधों का परिहार के लिए शिक्षाग्रन्थ अपेक्षित है। स्वरों को हम मात्र उदात्त, अनुदात्त और स्वरित, मात्र इतना ही जानते हैं। परन्तु उसमें भी भेद हैं। स्वरित के जात्य इत्यादि आठ भेद बताये गये हैं।
इसे आप याज्ञवल्क्य आदि शिक्षाओं में स्पष्ट देख सकते हैं। मैंने उनका सम्यक् व्याख्यान कर दिया है, अतः इसे समझने में आप को कोई कठिनाई नहीं होगी। उन आठ भेदों में जो आठवाँ ताथाभाव्य स्वरित है, वह मात्र ऋग्वेद में ही प्रयुक्त होता है, माध्यन्दिन में नही, ऐसा सभी शिक्षाकारों ने कहा है। माध्यन्दिन वाले उस ताथाभाव्य स्वरित के स्थान पर कम्प स्वर का प्रयोग करते हैं। इन आठों को स्पष्ट करने के लिए पृथक्-पृथक् लिपियाँ भी हैं। जैसे तैरोविराम स्वरित, तैरोव्यञ्जन स्वरित को लेख में स्पष्ट करने के लिए ऊपर वक्र रेखा दी जाती है। किसी के लिए स्वर के नीचे डब्बा जैसा लिखा जाता है। किसी के लिए नीचे त्रिपुण्ड्र जैसा लिखा जाता है। सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालय, वाराणसी से जो शिक्षासंग्रहग्रन्थ
प्रकाशित है, उसमें ये सभी चिन्ह दिये गये हैं। परन्तु मैंने अपना ग्रन्थ संगणक में कम्पोज किया है, उसमें ये चिन्ह नहीं बनाये गये हैं। अतः ऊपर मात्र खडी रेखा देकर छोड दिया है। मैंने अनेक फन्टों में वह अक्षर ढूँढा, परन्तु किसी में भी यह उपलब्ध नहीं हो सका। पुराने कम्पोजिंग जो गोटी सेट कर छपते थे, उसमें मैंने यह अक्षर पाया है। आज-कल जो भी प्रकाशन हैं, उसमें किसी में भी आप को यह अक्षर नहीं मिलेगा। अतः ऊपर खडी रेखा देख कर आप समझ लीजिये कि यहाँ स्वरित स्वर है। जात्य इत्यादि सात अथवा आठ स्वरितभेदों में कहाँ कौन स्वरित है?, इसका ज्ञान करने के लिए आप को परम्परा से वेद का अध्ययन करने वाले गुरु की शरण में ही जाना पडेगा। यह मात्र मेरी समस्या नही है, अपितु
उन सभी लेखकों और प्रकाशकों की समस्या है, जो संगणक से ग्रन्थ छपा रहे हैं।
मैंने आप को यह वात बता दी। परन्तु अन्य लोग यह दोष बतायेंगे भी नहीं।
कुछ वर्ष पहले वेद का जो ग्रन्थ प्रकाशित है, उसमें वेद के एक महान् मनीषी का मैने प्रकाशन देखा। उसमें कहीं पर भी उन्होंने स्वरित का चिन्ह ही नहीं दिया है। अब आप बताइये। सभी लोग मूर्ख ही तो नहीं है?। उनको देना चाहिये था? परन्तु छोड दिया है, यह किसका दोष है?।
अनुस्वार को गूँ, गुँ, गूँर, ऐसा हरस्व, दीर्घ और गुरु, तीन प्रयोग होता है। मैंने तीनों के लिए पृथक्-पृथक् लिपि का प्रयोग किया है। वैदिक द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ में इसके लिए एक ही लिपि का प्रयोग किया गया है?, यह भी आश्चर्य है।
ह्रस्व से पर में अनुस्वार को गूँ ऐसा दीर्घ उच्चारण होता है। दीर्घ से पर में अनुस्वार को गुँ ऐसा हस्व उच्चारण होता है। संयुक्ताक्षर पर में रहने पर और ऊष्मसंज्ञक वर्ण की विशेष अवस्था में वह अनुस्वार गुरुसंज्ञ होता है। इन तीनों के लिए पृथक्-पृथक् लिपि का प्रयोग होता है, जिसे मैंने इस ग्रन्थ में दिया है। जब कि वैदिकसमाज यह भूल गया कि इसमें भी लिपिभेद है।
‘विसर्गाङ्गुलिप्रदर्शनमाह भगवान् याज्ञवल्क्यः’ इस शिक्षा में वेद की आठ विकृतियों का वर्णन है। वहाँ इन विकृतियों के प्रयोग का विधान उदाहरणसहित दिया गया है। इस शिक्षाग्रन्थ का आरम्भ याज्ञवल्क्यशिक्षा से होता है। उन्हीं के
द्वारा रचित ‘मनःस्वारशिक्षा’ भी है। उसे मैंने तुरन्त बाद में जोड दिया है।
‘विसर्गाङ्गुलिप्रदर्शनमाह भगवान् याज्ञवल्क्यः’ यह शिक्षा भी याज्ञवल्क्य की है। इसे मैं बता आया हूँ। इससे पहले प्रातिशाख्यप्रदीपशिक्षा’ में याज्ञवल्क्य के मत का ही पोषण किया गया है। शिक्षाकार ने उन्हीं का नाम लेकर यह शिक्षा कही है।
यहाँ इस शिक्षा में वैदिक-अनुष्ठानों का प्रयोग बताया गया है। मैं इस पर व्याख्यान प्रस्तुत नहीं कर रहा हूँ। इसका कारण यह है कि व्याख्यान के बाद इस विद्या के सर्वजनीन होने से पाखण्ड बढ़ेगा। वह बढे, मैं यह नहीं चाहता हूँ। आप ने सुना होगा-इन्द्र को परास्त करने के लिए शुक्राचार्य ने यज्ञ का आयोजन करके यज्ञ की ज्वाला से अश्व, तुणीर, बाण सहित रथ प्रकट किया था। वह तुणीर अक्षय था। उसमें बाण कभी भी समाप्त नहीं होते थे। महाराज बलि की शक्ति देख कर इन्द्र अपने को लडने में असमर्थ मान कर स्वर्ग का सिंहासन छोड कर भाग गये थे। वहाँ जा कर महाराज बलि बैठ गये और स्वर्ग का शासन करने लगे थे। इसी तरह यहाँ सर्पयज्ञ का भी विधान बताया गया है। इससे सर्पों के भस्म
होने की वात कही गयी है। जनमेजय ने यह यज्ञ करवाया था। बहुत से सर्प आकर उस यज्ञ की ज्वाला में भस्म होने लगे। तब आकर आस्तीक ऋषि ने वह सर्पयज्ञ बन्द करवाया था।
इसमें जो विद्या बतायी गयी है, उसमें कृत्या का प्रयोग भी है। प्रह्लाद को मारने के लिए शुक्राचार्य ने कृत्या का प्रयोग किया। वह प्रकट होकर जब प्रह्लाद जी के पास गयी, तब पहले से ही वहाँ सुदर्शन जी का पहरा था। उन्होंने कृत्या को वापस किया। वह वापस होकर शुक्राचार्य का आश्रम और हिरण्यकशिपु के महल में भारी तबाही मचायी थी। यह वात पुराणों के माध्यम से आप ने अवश्य सुनी होगी। इससे पहले मैं यह शिक्षाग्रन्थों का व्याख्यान से यह वात बता चुकाहूँ कि मन्त्रों का प्रयोग में वाणी और पाणि का साथ-साथ प्रयोग होना चाहिये।
ऐसा जानने वाला ही यज्ञ का आचार्य बने। परन्तु आज-कल दक्षिणा के लोभ में मन्त्रों का सही ज्ञान न रखने वाला भी यज्ञ का आचार्य बन रहा है। ऐसे लोग इन अनुष्ठानों को करने लगेगे। किसी भी यज्ञ की सिद्धि के लिए मन्त्रशुद्धि, क्रियाशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, इन तीनों के शुद्ध होने पर ही यज्ञ फल देता है। यदि इसमें एक भी अशुद्ध होता है, तब यज्ञ विपरीत फल दे देता है। जैसे द्रव्य की अशुद्धि होने से महाराज युद्धिष्ठिर द्वारा अनुष्ठित सोमयज्ञ तुरन्त ही विपरीत फल दे गया और यज्ञ के बाद ही उसी यज्ञशाला में द्यूतक्रीडा का आयोजन किया गया। यज्ञ के यजमान महाराज युधिष्ठिर अपना सम्पूर्ण राज्य, भाइयों, पत्नी और अपने को भी हार कर वन को चले गये थे। यह वात इसी तरह श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण में लिखी है।
आप पढेंगे तो आप को वहाँ यह अवश्य मिलेगी। मैं इसे पढ कर और अनुभव करके लिख रहा हूँ। इसी लिए मैंने निश्चय किया कि इनका
व्याख्यान प्रस्तुत न करूँ। इसी लिए मैं इनका व्याख्यान छोड रहा हूँ। यदि कोई इसका अधिकारी विद्वान् होगा, तो उसके लिए व्याख्यान आवश्यक नहीं है। यदि अनधिकारी है तब भी उसके लिए व्याख्यान आवश्यक नहीं है।
लीजिये, यह शिक्षासंग्रह ग्रन्थ आप के समक्ष नारायणीव्याख्यासहित प्रस्तुत है-
दि. २५.०३.२०२०, वि.सं.२०७७, बुधवार,
प्रो. हरिनारायणतिवारी नवरात्र का प्रथम दिवस
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