Skand Mahapuran (Sanskrit – Hindi) Pratham Maheshwar Khand

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Skand Puran (Pratham Maheshwar Khand) in Sanskrit with Hindi Translation. by Maharishi VedVyas Published by Chowkhamba, Kashi

माहेश्वरखण्ड

महापुराण का प्रथम खण्ड माहेश्वर खण्ड है। इसमें तीन उपखण्ड है -(१) केदारखण्ड, (२) कुमारीखण्ड और (३) अरूणाचल माहात्म्य। जहां स्कन्दं महापुराण के सात खण्ड सप्तद्वीपवती पृथ्वी का संकेत करते हैं, माहेश्वर खण्ड के तीनों उपखण्ड भारतभूमि के प्रतीक हैं। केदार उत्तर में हैं। महीसागर संगम (कुमारी) पश्चिम में है। अरुणाचल दक्षिण में है। केदारखण्ड में ३५ अध्याय हैं। कुमारिकाखण्ड में ६६ अध्याय हैं। अरुणाचल माहात्म्य के पूर्वार्ध में तेरह और उत्तरार्ध में चौबीस कुल ३७ अध्याय हैं।

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Skand Puran (Pratham Maheshwar Khand) in Sanskrit with Hindi Translation. by Maharishi VedVyas

स्कन्दपुराण-माहेश्वर खण्ड अनुशीलन (जगद्गुरु रामानुजाचार्य आचार्यपीठाधिपति स्वामी श्री राघवाचार्य महाराज)

स्कन्ददेवता

स्कन्द देव हैं। पण्मतस्थापक आचार्य शङ्कर ने जिन छः मतों को मान्यता दी उनमें से एक के यह आराध्य एवं उपास्य देव हैं। वह शोषक हैं असत् के, असद्वृतियों के एवं असुरों के। स्कन्दयति, शोषयति, अर्थात् जो शोषण करता है, वही देव स्कन्द है। परमतत्व में असद्वृत्तियों को नष्ट करने की सामर्थ्य सदा विद्यमान रहती है। अतः परमतत्त्व स्कन्द है। विष्णु के सहस्त्र नामों में एक ‘स्कन्द’ नाम है। शिव के सहस्त्र नामों में भी स्कन्द नाम है। देववृत्त के अनुसार भूतभावन शङ्कर के आत्मज हैं-घडानन स्कन्द, जो देवों के सेनापति हैं। ‘सेनानीनामहंस्कन्दः’ अर्थात् सेनापतियों में मैं स्कन्द हूँ, के अनुसार भगवान् की विभूति हैं।

स्कन्दपुराण

पुराण वाङ्मय में स्कन्द के नाम से दो ग्रन्थ मिलते हैं। एक खण्डों में विभक्त है, दूसरा संहिताओं में विभक्त हैं। नारदीयपुराण अपनी सूची में खण्डात्मक पुराण का ग्रहण किया है। नारदीयपुराण में स्कन्दपुराण के सात खण्ड गिनाये गये हैं-(१) माहेश्वर, (२) वैष्णव, (३) ब्राह्म, (४) काशी, (५) अवन्ती, (६) नागर, (७) प्रभास। अन्य मतानुसार अवन्ती और नागर के स्थान पर रेवा और तापी खण्ड गिने जाते हैं। यह सप्तखण्डात्मक पुराण महापुराण माना जाता है। छः संहिताओं वाला स्कन्दपुराण पुराण है। दोनों ही पुराण वाङ्मय के जाज्वल्यमान रत्न हैं। दोनों के श्लोकों की संख्या ८१ हजार बतायी जाती है।

विषय की दृष्टि से सम्पूर्ण पुराण में महेश्वर शिव और माहेश्वरधर्म की प्रधानता है। कहा भी है

(१) यस्मिन्त्रतिपदं साक्षान्महादेवो व्यवस्थितः (नारदीपुराण)

(२) यत्र माहेश्वराध्माः षण्मुखेन प्रकाशिताः। ( नारदीयपुराण)

(३) यत्र माहेश्वरान्धर्मानधिकृत्य च षण्मुखः (मत्स्यपुराण)

अर्थ यह है कि (१) स्कन्दपुराण के प्रत्येक पद में शिव प्रतिष्ठित हैं। (२) षडानन स्कन्द ने इस पुराण में माहेश्वर (शैव) धर्म का प्रतिपादन किया है। (३) शैव धर्म को ही लक्ष्य में रखकर स्कन्द ने इस पुराण का उपदेश दिया।

माहेश्वरखण्ड

महापुराण का प्रथम खण्ड माहेश्वर खण्ड है। इसमें तीन उपखण्ड है -(१) केदारखण्ड, (२) कुमारीखण्ड और (३) अरूणाचल माहात्म्य। जहां स्कन्दं महापुराण के सात खण्ड सप्तद्वीपवती पृथ्वी का संकेत करते हैं, माहेश्वर खण्ड के तीनों उपखण्ड भारतभूमि के प्रतीक हैं। केदार उत्तर में हैं। महीसागर संगम (कुमारी) पश्चिम में है। अरुणाचल दक्षिण में है। केदारखण्ड में ३५ अध्याय हैं। कुमारिकाखण्ड में ६६ अध्याय हैं। अरुणाचल माहात्म्य के पूर्वार्ध में तेरह और उत्तरार्ध में चौबीस कुल ३७ अध्याय हैं।

दक्ष यज्ञ विध्वंस से केदारखण्ड की कथा आरम्भ होती है। विषभक्षण का वर्णन करती हुई कथा पार्वती के चरित्र तक पहुंचती है, तब स्कन्द का चरित्र आता है। शिव पार्वती के राज्याभिषेक पर खण्ड का उपसंहार होता है।

कुमारिकाखण्ड में महीसागरसंगम का माहात्म्य है। अर्जुन की यात्रा से प्रसंग आरम्भ होता है। क्रमशः यहां के एक-एक तीर्थ एवं एक-एक आराध्य देव का वर्णन किया गया है अर्जुन ने यहां के पांच तीर्थों के पांच बाहों का उद्धार किया। नारद ने कलाप ग्राम के ब्राह्मणों को यहां ले जाकर बसाया। कुमार कार्तिकेय, भरतपुत्र शशभृक्ष की कन्या कुमारी इन्द्रद्युम्न और उनके सहयोगी, ऐतरेय आदि ने यहां साधना की शिवलिङ्गों के अतिरिक्त विष्णु, सूर्य एवं देवी की भी यहां प्रतिष्ठा हुई।

अरुणाचल माहात्म्य का विषय स्पष्ट है। अरुणाचल के नाम से शिव के प्रकट होने से माहात्म्य का आरंभ होता है। देवताओं वाषियों की आराधना का तथा यहां के तीर्थों का वर्णन करते हुए वज्राङ्ग की साधना पर माहात्म्य की पूर्ति होती है |

माहेश्वरधर्म

जहां तक माहेश्वर धर्म का सम्बन्ध है, प्रत्येक प्रसङ्ग में किसी न किसी रूप में शैवधर्म की चर्चा आ गई है। भस्मधारण, रुद्राक्षधारण, शिवत्रयोदशी, शिवपूजा, आदि शैवधर्म के आचरणों का प्रतिपादन किया गया है। आचारवान् व्यक्ति ही नहीं प्रत्युत अनाचारपरायण लोग भी शैवधर्म के अनुष्ठान से सुगति प्राप्त करने में समर्थ हुए. इसके उदाहरणों से खण्ड परिपूर्ण है।

शिवतत्त्व

शैवधर्म के दर्शन का सर्वस्व है-शिवतत्त्व। शिवतत्त्व के आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक

तीनों ही रूपों की विशद मीमांसा इस खण्ड में उपलब्ध होती है। दक्ष यज्ञ विध्वंस से शुष्क कर्म का निषेध तथा ज्ञानपूर्वक कर्म का समर्थन किया गया है दक्ष को पुनः

जीवित कर शङ्कर ने बताया

केवलं कर्मणा त्वं हि संसारात्त्तुमिच्छसि

न शक्नुवन्ति मां प्राप्तुं मूढा कर्मवशा नराः।

तस्माज्ज्ञानपरोऽभूत्वा कुरु कर्म समाहितः।। केदारखण्ड ५।४१,४२,४३

आशय यह है कि तुम केवल कर्म के द्वारा संसार सागर से पार जाना चाहते हो। कर्म के वशीभूत हुए मनुष्य मुझे प्राप्त नहीं कर पाते, इसलिये तुम ज्ञानपरायण होकर कर्म करो।

ज्ञान के द्वारा प्राप्त होने वाला आत्मसाक्षात्कार ही वास्तविक अमरत्व है। इनसे भिन्न केवल कर्म के द्वारा समुद्र मंथन होने पर कालकूट विष ही प्रकट होता है। शिव की पराशक्ति प्रकृति से जन्मे हुए (साक्षात्प्रकृत्या सम्भूतः) गणेश ने यह विघ्न उपस्थित किया था (मया विघ्नं विनोदेन कृतं तेषां सुदृर्जयम् ) यह गणेश माया पुत्रेऽपि निर्मायः हैं अर्थात् माया से उत्पन्न होकर भी माया से रहित हैं। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर शिव ने विष के भय को दूर किया और गणेशोपासना का विधान किया यह भी बताया गया है कि शिव ने गणेश के अज्ञान के मस्तक को काटकर और ज्ञान का मस्तक लगाकर गजानन गणेश बना दिया। (केदारखण्ड १०।२८-३६)।

 

Weight 1570 g
Dimensions 25 × 19 × 5.5 cm

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