॥ श्रीहरिः ॥
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।
मूकं करोति वाचालं पहुं लङ्घयते गिरिम् ।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्॥
परम आदरणीय श्रीसम्प्रदायप्रवर्तक पूज्यपाद भगवान् श्रीरामानुजाचार्यकृत श्रीमद्भगवद्गीताका भाष्य जगत् में विख्यात है। भक्तिमार्ग में चलनेवालों के लिये यह खास काम की चीज है। इसी कारण प्रायः भक्तिपक्ष के टीकाकारों ने अधिकांश में इसका अनुकरण किया है। आचार्य के कथन से यह सिद्ध होता है कि श्रीशङ्कराचार्यका अद्वैतसिद्धान्त इस भाष्यके लेखन काल में भलीभाँति प्रचलित था। आपने इस भाष्यका निर्माण किस उद्देश्यसे किया ? आचार्य ने इस विषय पर भाष्य में कुछ नहीं लिखा है।
भाष्य के आरम्भ में आचार्य ने भगवान् विष्णु के स्वरूप का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। दूसरे अध्याय के बारहवें श्लोक में प्रचलित अद्वैतवादका यानी मायावाद का और विम्बवाद का श्रुति-स्मृतियों के प्रमाण सहित सुन्दर युक्तियों द्वारा खण्डन किया है। इनके सिद्धान्त में कर्मो के झंझट से अलग रहकर मन और इन्द्रियोंके संयमपूर्वक आत्मा को जड प्रकृति से सर्वथा विलक्षण, चेतन, निर्विकार, असङ्ग और समानाकार समझकर उसका निरन्तर चिन्तन करते रहना ही ज्ञानयोग है (गीता ३। ४); इसीका गीता में ज्ञाननिष्ठा, अकर्म, संन्यास, सांख्ययोग, कर्मसंन्यास आदि नामोंसे वर्णन हुआ है (गीता ३। ४, ८; ५ २, ४)। तथा नित्य-नैमित्तिक कर्मोको मोक्ष के साधन समझकर आत्मज्ञानपूर्वक भगवान्की आराधना के रूप में करना और उसके लिये शरीर धारण करना आवश्यक होने के कारण शरीर निर्वाह के लिये एवं यज्ञादि कर्मो की पूर्ति के लिये भी द्रव्योपार्जनादि वर्णाश्रम के अन्यान्य शास्त्रसम्मत कर्म करते रहना और उसके साथ साथ- साथ आत्मा के यथार्थ स्वरुप का भी अनुभव करते रहना, यह कर्मयोग है |
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