यज्ञविधानम
रुद्राभिषेक, नवचण्डी, सत्चण्डी, सहस्त्र चण्डी, रुद्रयाग, विष्णुयाग की अनेक पूजा पद्धतियाँ सहित
सम्पादक : आचार्य पं. रामसेवक पाण्डेय वेदप्राध्यापक, श्री अन्नपूर्णा ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम सं.मं.वि. शिवपुर, वाराणसी
YAJNA VIDHANAM
Writer: Acharya Pt. Ramsevak Pandey Vedacharya Sri Annapurna Rishikul Bramcharyashram, S.M.V. Shivpur, Varanasi
मनुष्य जीवन बड़े सौभाग्य से प्राप्त होता है अतएव कहा गया है
“मानुष्यं दुर्लभं लोके,”। मानव पद की व्युत्पत्ति है ‘मनुते आत्मतत्वमिति मानवः’ जो जन्म लेकर आत्मा को जाने, वही मानव है।
आत्म तत्व का ज्ञान स्वाभाविक प्रवृत्ति से नहीं होता है किन्तु वेद तदनुसारी शास्त्रों के द्वारा प्रतिपादित निष्काम धर्माचरण से होता है जैसा कि गीता में भगवान् ने कहा है “तस्माच्छास्त्रं प्रमाणन्ते कार्याकार्य व्यस्थिथतौ” मानव की सृष्टि के बाद उसके रहन सहन को बताने के लिए भगवान् ने विश्वास मूत वेदों का प्रकरण किया उन वेदों में तीन काण्ड है कर्मकाण्ड, उपासना काण्ड तथा ज्ञानकाण्ड ।
मनुष्य को पहले वेद प्रतिपादिक आर्नानुष्ठान से अन्तःकरण की शुद्धि करना चाहिए, अतएव उपासना के द्वारा चित्त की एकाग्रता होने पर शुद्ध एकाग्रचित्त से आत्मा का प्रकाश करना चाहिए, ऐसा शास्त्रों में बताया गया है।
कर्माणि चित्त शुद्ध्यर्थ मैकाग्राभ्या मुपासना ।
वस्तु सिद्धि विचारेण न किञ्चित् कर्म कोटिभिः ।।
कर्म के द्वारा चित्त शुद्धि करके एकाग्रता के लिए उपासना करनी चाहिए इसके बाद आत्मवस्तु को जानना चाहिए, यह कर्म मानव मात्र के लिए अवश्य अनुष्ठेय है तभी उसका जीवन कृतार्थ होता है किन्तु कर्मानुष्ठान प्राथम्येन अवश्य अनुष्ठेय माना गया है।
संध्या स्नानं जपो होमो देवतानाञ्च वन्दनम् ।
आतिथ्यं बलिवैश्वश्ञ्च षट् कर्माणि दिने दिने ।।
इसके द्वारा कर्म प्रतिदिन करणीय है किन्तु ये सभी कर्म जीवन काल में है किन्तु कुछ कर्म और्ध्वदेहिक है जिन्हें श्राद्ध शब्द से कहा जाता है
अर्थात् दो तरह के कर्म होते है ऐहिक तथा पुण्य पारलौकिक।
दोनों तरह कर्म के द्वारा मनुष्य की प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। जिसके द्वारा मनुष्य अपने जीवन को समुत्रति कर सकता है, किन्तु कर्मानुष्ठान विधि पूर्वक करने से ही सफल होता है, अतः कर्मानुष्ठान विधि का क्रम ज्ञान परमावश्यक है।
हमारे सनातन परम्परा में कर्मों का विधान क्रम वेदादि शास्त्रों में सूक्ष्म रुपेण बतलाया गया है किन्तु उसका विस्ताररूप से स्पष्टीकरण पूर्णापूर्णरूपेण अनेक कर्म काण्डवेत्राओं ने निरुपण किया है उसका अध्ययन करके जो क्रम स्पष्टरूप से नही समझाया गया है उन कर्मों को क्रमबद्ध करके जिसका क्रम रूप में प्रकाशित करना परमावश्यक था
पण्डित कर्मकाण्ड के परम शास्त्री आचार्य पं. रामसेवक पाण्डेय सूक्ष्म से सूक्ष्म विधानों को बुद्धि में सङ्कलित करके एकत्र प्रकाशित करने के लिए पुस्तकाकार में ‘यज्ञविधानम्’ नामक ग्रन्थ को लिखने का निश्चय किया।
श्री पाण्डेय जी की अभिलाषा थी कि मेरे इस प्रयास से कर्मकाण्ड विधि के जिज्ञासु को कर्मकाण्ड विधि के ज्ञान के लिए पुनः आकांक्षा न रह जाय। इस ग्रन्थ के अध्ययन से जिज्ञासु विद्वान कर्मकाण्ड के पण्डित विद्वान् बनकर सविधि कर्मकाण्ड करने में विशेषज्ञ के रूप में अपने को प्रस्तुत करने में सक्षम होकर लोकोपकार कर सके।
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