तिलभाण्डेश्वर, वाराणसी
तिलभाण्डेश्वर शिवलिंग की विशिष्टता यह है कि इनका आकार काशी के तीन सबसे बड़े शिवलिंगों में से एक है और हर वर्ष इसमें तिल भर की वृद्धि होती है। काशी के महात्म्य में स्वयंभू शिवलिंगों का अदितिय स्थान है, जिन्हें देखने से अदभुत अनुभव होता है; उन्हीं स्वयंभू शिवलिंगों में से एक हैं- तिलभाण्डेश्वर महादेव। काशी के प्राचीन मंदिरों में से एक तिलभाण्डेश्वर का मंदिर शहर के भीड़भाड़ वाले इलाके मदनपुरा के बी.17/42 तिलभाण्डेश्वर गली में स्थित है। इस स्वयंभू शिवलिंग के बारे में वर्णित है कि प्राचीन काल में इस क्षेत्र की भूमि पर तिल की खेती होती थी। एक दिन अचानक तिल के खेतों के मध्य से शिवलिंग उत्पन्न हो गया। जब इस शिवलिंग को स्थानीय लोगों ने देखा तो पूजा-अर्चन करने के बाद तिल चढ़ाने लगे। मान्यता है कि तभी से इन्हें तिलभाण्डेश्वर कहा जाता है। काशीखण्डोक्त इस शिवलिंग में स्वयं भगवान शिव विराजमान हैं।
इतिहास
बताया जाता है कि मुस्लिम शासन के दौरान अन्य मंदिरों ध्वस्त करने के क्रम में तिलभाण्डेश्वर को भी नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गयी। मंदिर को तीन बार मुस्लिम शासकों ने ध्वस्त कराने के लिए सैनिकों को भेजा लेकिन हर बार कुछ न कुछ ऐसा घट गया कि सैनिकों को मुंह की खानी पड़ी। अंगेजी शासन के दौरान एक बार ब्रिटिश अधिकारियों ने शिवलिंग के आकार में बढ़ोत्तरी को परखने के लिए उसके चारो ओर धागा बांध दिया जो अगले दिन टूटा मिला। कई जगह उल्लेख मिलता है कि माता शारदा इस स्थान पर कुछ समय के लिए रूकी थीं। वहीं, कर्नाटक राज्य से विभाण्डक ऋषि काशी आये तो यहीं रूककर पूजा-पाठ करने लगे। मंदिर निर्माण के बार में बताया जाता है कि विजयानगरम के किसी राजा ने इस भव्य एवं बड़े मंदिर को बनवाया था। तीन तल वाले इस मंदिर में मुख्य द्वार से अंदर जाने पर दाहिनी ओर नीचे गलियारे में जाने पर विभाण्डेश्वर शिवलिंग स्थित हैं। इस शिवलिंग के उपर तांबे की धातु चढ़ायी गयी है।
मान्यता
मान्यता के अनुसार विभाण्डेश्वर के दर्शन के उपरांत तिलभाण्डेश्वर का दर्शन करने पर सारी मनोकामना पूर्ण हो जाती है। बनारसी एवं मलयाली संस्कृति के उत्कृष्ट स्वरूप वाले इस मंदिर में भगवान अइप्पा का भी मंदिर स्थित है जिसकी दीवारों पर मलयाली भाषा में जानकारियां लिखी हुई हैं। इस मंदिर के आगे उपर सीढ़ियां चढ़ने पर बायीं ओर स्थित हैं- स्वयंभू शिवलिंग तिलभाण्डेश्वर। सुरक्षा की दृष्टि से गर्भगृह को लोहे की जाली से बंद कर दिया गया है। काशी के इस सबसे बड़े शिवलिंग को देखकर भक्त सहज ही आकर्षित हो जाते हैं। गर्भगृह के बायीं ओर की दीवार पर भोलेनाथ की योगदृष्टणा मुद्रा में मूर्ति है। दाहिनी ओर दीवार पर भी शिवलिंग स्थापित हैं। वहीं, गर्भगृह के दाहिनी ओर छोटे से मंदिर में माँ पार्वती की दिव्य मूर्ति स्थापित है। इसी मंदिर के बगल में ही विशालकाय क़रीब 18 फीट उंचा शिवकोटिस्तूप भी है। जिसे आन्ध्र प्रदेश के भक्तों ने बनवाया है। इस स्तूप में वहां से आने वाले भक्त एक कागज पर शिव-शिव दो बार लिखकर डालते हैं। मंदिर में रहने वाले पुजारियों के मुताबिक़ अब तक क़रीब 10 करोड़ से ज्यादा शिव का नाम लिखकर भक्त स्तूप में डाल चुके हैं। तिलभाण्डेश्वर मंदिर में वर्ष में चार बड़े आयोजन होते हैं। महाशिवरात्रि के दिन शिव के पंचमुखेश्वर रूप को जो कि तांबे का बना हुआ है तिलभाण्डेश्वर शिवलिंग के उपर रखा जाता है; जिसके दर्शन के लिए काफ़ी संख्या में भक्त उमड़ते हैं। वहीं मकर संक्रांति वाले दिन बाबा का चंदन श्रृंगार किया जाता है। सावन महीने में मंदिर में रूद्राभिषेक होता है जबकि दीपावली पर अन्नकूट का आयोजन किया जाता है। इस दौरान भजन-कीर्तन का सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होता है। मंदिर खुलने का समय सुबह 5 बजे से रात्रि साढ़े 9 बजे तक है। वहीं दिन में 1 से 4 बजे के बीच गर्भगृह बंद रहता है। प्रतिदिन आरती सुबह 6 बजे होती है। मंदिर परिसर में ही तिलभाण्डेश्वर मठ भी स्थित है। जिसमें साधु संत रहते हैं। जबकि मंदिर की गतिविधियों को देखने की जिम्मेदारी केरला के साधु संत निभा रहे हैं।