AŞTANGA HRDAYAM OF ŚRIMADVĀGBHATA
Edited with Nirmala’ Hindi Commentary Along with Special Deliberation etc.
by Dr. Brahmanand Tripathi Sahitya-Ayurveda-Jyotish-Acharya M.A., Ph.D., D.Sc. A
आयुर्वेदीय वाङ्मय का इतिहास ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवों से सम्बन्धित होने के कारण अत्यन्त प्राचीन, गौरवास्पद एवं विस्तृत है। भगवान् धन्वन्तरि ने इस आयुर्वेद को ‘तदिदं शाश्वतं पुण्यं स्वर्ण्य यशस्यमायुष्यं वृत्तिकरं चेति’ (सु.सू. १९१९) कहा है। लोकोपकार की दृष्टि से इस विस्तृत आयुर्वेद को बाद में आठ अंगों में विभक्त कर दिया गया। तब से इसे ‘अष्टांग आयुर्वेद’ कहा जाता है। इन अंगों का विभाजन उस समय के आयुर्वेदज्ञ महर्षियों ने किया। कालान्तर में कालचक्र के अव्याहत आघात से तथा अन्य अनेक कारणों से ये अंग खण्डित होने के साथ प्रायः लुप्त भी हो गये। शताब्दियों के पश्चात् ऋषिकल्प आयुर्वेदविद् विद्वानों ने आयुर्वेद के उन खण्डित अंगों की पुनः रचना की। खण्डित अंशों की पूर्ति युक्त उन संहिता ग्रन्थों को प्रतिसंस्कृत कहा जाने लगा, जैसे कि आचार्य दृढबल द्वारा प्रतिसंस्कृत चरकसंहिता। इसके अतिरिक्त प्राचीन खण्डित संहिताओं में भेड (ल) संहिता तथा काश्यपसंहिता के नाम भी उल्लेखनीय हैं। तदनन्तर संग्रह की प्रवृत्ति से रचित संहिताओं में अष्टांगसंग्रह तथा अष्टांगहृदय संहिताएँ प्रमुख एवं सुप्रसिद्ध हैं। परवर्ती विद्वानों ने वर्गीकरण की दृष्टि से आयुर्वेदीय संहिताओं का विभाजन बृहत्त्रयी तथा लघुत्रयी के रूप में किया। बृहत्त्रयी में चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता तथा अष्टांगहृदय का समावेश किया गया है, क्योंकि ‘गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति’। यह भी तथ्य है कि वाग्भट की कृतियों में जितना प्रचार-प्रसार ‘अष्टांगहृदय’ का है, उतना ‘अष्टांगसंग्रह’ का नहीं है। इसी को आधार मानकर बृहत्त्रयी रत्नमाला में ‘हृदय’ रूप रत्न को लेकर पारखियों ने गूँथा हो ?
चरक सुश्रुत संहिताओं की मान्यता अपने-अपने स्थान पर प्राचीनकाल से अद्यावधि अक्षुण्ण चली आ रही है। अतएव इनका पठन-पाठन तथा कर्माभ्यास भी होता आ रहा है। यह भी सत्य है कि पुनर्वसु आत्रेय तथा भगवान् धन्वन्तरि के उपदेशों के संग्रह रूप उक्त संहिताओं में जो लिखा है, वह अपने-अपने क्षेत्र के भीतर आप्त तथा आर्ष वचनों की चहारदिवारी तक सीमित होकर रह गया है तथा उक्त महर्षियों ने पराधिकार में हस्तक्षेप न करने की प्रतिज्ञा कर रखी थी। यह उक्त संहिताकारों का अपना-अपना उज्ज्वल चरित्र था। महर्षि अग्निवेश प्रणीत काय चिकित्सा का नाम चरक संहिता और भगवान् धन्वन्तरि द्वारा उपदिष्ट शल्यतन्त्र का नाम सुश्रुतसंहिता है। ये दोनों ही आयुर्वेदशास्त्र की धरोहर एवं अक्षयनिधि हैं। उन-उन आचार्यों द्वारा इनमें समाविष्ट विषय विशेष आयुर्वेदशास्त्र के जीवातु हैं, अतएव ये संहिताएँ समाज की परम उपकारक हैं।
प्रस्तुत व्याख्या की विशेषता-अष्टांगसंग्रह की विस्तार से रचना करने के बाद जब वाग्भट ने साररूप ‘हृदय’ की रचना की तो विषयों को संक्षेप में उपस्थित करना आवश्यक हो गया था। व्यास-संक्षेप रचनाचतुर वाग्भट ने इस ग्रन्थ से सम्बन्धित विषयों की पूर्ति कैसे और कहाँ से की होगी, इसका ध्यान रखते हुए सम्पूर्ण ग्रन्थ में जहाँ-जहाँ जो संकेत दिये हैं, उन्हें व्याख्याकाल में सन्दर्भ संकेत देकर अधिक स्पष्ट कर दिया गया है। इनकी सहायता से विज्ञ पाठक उन विषयों को यथास्थान सरलता से ढूँढ़ लेगा। साथ ही स्थान-स्थान पर ‘अष्टांगहृदय’ के दुरूह विषयों को स्पष्ट करने की दृष्टि से जिन-जिन विषयों को ग्रन्थान्तरों से लिया गया है, उनके भी सन्दर्भ-संकेत यथास्थान दे दिये हैं। मूल ग्रन्थ की टीका के अन्त में वक्तव्य तथा विशेष वचन दिये गये हैं, जो ग्रन्थ के आशय को स्पष्ट करने में सहायक होंगे। यद्यपि ‘अष्टांगहृदय’ में ग्रन्थकार ने तन्त्रयुक्तियों का उल्लेख नहीं किया है जिसका अष्टांगसंग्रह में उल्लेख हुआ है। अतः उनका परिगणन मात्र हमने यथास्थान अपने वक्तव्य में कर दिया है। औषधनिर्माण प्रसंग में जहाँ-जहाँ आवश्यक समझा गया वहाँ-वहाँ औषध द्रव्य परिमाण तथा उसके निर्माण विधि का भी उल्लेख कर दिया गया है। प्रस्तुत ‘निर्मला’ व्याख्या की ये विशेषताएँ हैं।
अष्टांगहृदय एक संग्रह-ग्रन्थ है। इसमें चरक, सुश्रुत, अष्टांगसंग्रह के तथा अन्य अनेक प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थों से उद्धरण लिये गये हैं। वाग्भट ने अपने विवेक से अनेक प्रसंगोचित विषयों का प्रस्तुत ग्रन्थ में समावेश किया है, यही कारण है कि इस ग्रन्थ का रूप अद्यतन बन पड़ा है। चरक आदि प्राचीन तन्त्रकारों ने जिन विषयों का सामान्य रूप से वर्णन किया था, उन्हें वाग्भट ने प्रमुख रूप देकर पाठकों का इस ओर विशेष ध्यानाकर्षण किया है; जैसे— रक्तविकारों में रक्तनिर्हरण (सिरावेध, फस्द खोलना ) एक महत्त्वपूर्ण चिकित्सा है। वातविकारों में आयुर्वेदीय विधि से बस्ति-प्रयोग करना अपने में एक दायित्वपूर्ण चिकित्सा है। जिसकी आज का चिकित्सक समाज प्राय: उपेक्षा कर बैठा है। शिलाजतु प्रयोग— शास्त्रीय विधि से इसका दीर्घकाल तक सेवन करना तथा कराना चाहिए। पथ्य-अपथ्य का विचार करके किया गया इसका पयोग रोग को नष्ट करके दीर्घायु प्रदान करता है। अग्र्यद्रव्यसंग्रह यह (अ.हृ.उ. ४०९४८-५८) प्रमुख रोगों में हितकर है। भूल किसी से भी हो सकती है, क्योंकि कहा गया है- ‘प्रमादो धीमतामपि’ । अतः प्रामादिक अंशों को छोड़कर महत्त्वपूर्ण विषयों का ग्रहण करना विद्वानों का कर्तव्य है।
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