Sri Venkateshwar Shatabdi Panchang ( Sau varshiya )
Pt. Ishwar Dutt Sharma
Publisher: Khemraj Srikrishna Das
Many Astrologers and Scholars find old Panchang for Astrological needs and knowledge. Sri Venkateshwar Shatabdi Panchang (Shatabdi Panchang) is Available in a Collection of 100 years Panchang in book form. It is very useful for people who need old Panchang for finding some references from it.
It is available for 100 years Panchang i.e. the years 1944-45 to 2043 -44 (Vikram Samwat 2001 to 2100)
Panchang of old years.
विद्वज्जनों को विदित ही है कि सूक्ष्म वैधयंत्रों से प्रत्यक्ष वेष द्वारा दुग्गणितंत्र्ययुक्त सिद्धांत बनाने पर भी समय के भेद तथा काल गति से ग्रहों के गणित में थोड़ा २ अन्तर पड़ ही जाता है। जिसको यथा समय ज्यौतिषतत्वज्ञ विद्वान् ठीक दुक्तुल्य करते आये हैं।
सबसे पीछे इस गणित के परिशोधनकर्ता ग्रहलाधव ग्रंथकार गणेश दैवज्ञ हुए। उनको भो आज करीब ४५० वर्ष हो गये। अतः गणेश दैवज्ञकृत ग्रहलाघव का गणित भी सांतरित हो गया है। ग्रहण के स्पर्श मोक्षकाल में दो तीन घटी, तथा कई ग्रहों में २४ अंशो का और गुरु शुक्र के उदयास्त में दिनों का एवं तिथियों में १५-१६ घटी तक का अंतर प्रत्यक्ष देखा जाता है इसलिये वकटेश बापु शास्त्री केतकर ने वेघद्वारा ग्रहलाघव के गणित को दूक्यप्रत्यय में अत्यंत शिथिल देखकर दुक्तुल्य ग्रहसाधन के लिये केतकी, ( नूतन ग्रहलाघव ) ग्रंथ की रचना की जिसके प्रारम्भ में ही आप लिखते हैं
श्रीमद्गणेशरचितं ग्रहलाघवाख्यं भूमण्डलेविजयतेकरणं तथापि ।
वृक्प्रत्ययऽतिशिथिलं समभूदिदानीं सद्वेधसिद्ध गणितं रचयामि तस्मात् ।
वेध यंत्रों द्वारा संशोधन की विधि सभी पूर्वाचयों ने अपने २ ग्रंथों में लिखी है किंतु यह कार्य राज्य की सहायता से हो सुकर है। जैसे आचार्य लिखते हैं
विध्वाग्रहान्संततमत्र धोरास्तत्स्थानपंक्तिच विचार्यतेषाम् । पातोच्च केन्द्र च्युति मध्य भोगान्दारांस्तथा मध्यगतोरवापुः ।। १ ।। बेधाद्यतः सिद्धिरभूत्पुरास्य शास्त्रस्य तत्शुद्धिपरीक्षणं च । वेधाद्विनाकर्तुमशक्यमस्माद्वेधक्रिया भूपवरः सुरक्ष्याः ॥ २ ॥ सद्वेधशालां निजराजधान्यां नभश्चराणामवलोकनार्थम् । संस्थाप्य तस्मिश्च नियोजनीया विद्वद्वरा वेघविधिप्रवीणाः ॥ ३ ॥ यन्त्ररमूल्यैनिशि वा दिवा वा विलोक्य याम्योत्तरलंघनानि । नभः सदां दृग्यगणतंक्य भेदान्पटे लिखित्वा विदधीत नित्यम् ॥ ४ ॥ अग्रे यदा वृग्गऽणितांतरं स्याच्छनंः शनैश्चोपचितं यदा वै । तत्कारणानि क्रमशो विचार्य ग्रंथान्पटिष्ठाः परिशोधयेयुः ॥ ५ ॥
राज्याश्रय न होते हुए भी हमारे भारत में परमोद्योगी पं० सुधाकरजी द्विवेदी, पं० बापुदेव शास्त्री, पं० रोपन्त छत्रे, पं० लोकमान्य तिलक, पं० वेंकटेशवापु केतकर पं० श्रीपाद कोल्हटकर, जयपुर रा ज्यो. पं० केदारनाथमी प्रभृति विद्वानों ने वेष द्वारा गणित शुद्ध करके कई एक ग्रंथ बना दिये है जोकि ठीक दस्तुल्य है, पंचाङ्गों का गणित दृक्तुल्य होना ही श्रेष्ठ और शास्त्रसम्मत है यथा
यात्राविवाहोत्सवजातकादौ सेट: स्फुटेरेव फलस्फुटत्वम् । स्यात्प्रोच्यते तेन नभश्चराणां स्फुटकिया गणितंक्यकृया (सि.शि.)
यस्मिन् पक्षे येन काले दृश्यते गणितंक्यकम् । तेन पक्षेण ते कार्या प्रहास्तत्समयोद्भवाः (ब. सि.) तेभ्यः स्याद्ग्रहणादि दुक्सममिमं प्रोक्ता मया सा तिथिः । ग्राह्या मङ्गल धर्म-निर्णयाविघावेषा यतो दुक्समा ( ति. चि. )
मुनिः प्रणोते मनुजः क्वचिच्वेददृश्यतेऽन्तरम् तदा तदेव संसाध्यं न कार्य सर्वमन्यथा (सि.मु.) संसोध्यः स्पष्टतरं बीजं नलिकादि यंत्रेम्यः । तत्संस्कृत ग्रहेम्यः कर्तव्यौ निर्णयादेशो (ब.सि.) उपरोक्त वाक्यानुसार सूक्ष्मदृश्य गणित ही शुद्ध प्राचीन गणित है और वही धार्मिक मुहूर्तादि कार्यो में उपयुक्त है ।
भारत सरकार ने भी इसी गणित को मान्यता दे दी है तथा भारत के अन्य भागों में भी ऐसे दृस्तुल्य पंचांग बनने लगे हैं जैसे जन्मभूमि बम्बई, बृहन्ममहाराष्ट्र पंचांग (म.प्र.) बापुदेव शास्त्री काशी, भारत सरकार का राष्ट्रीय पंचांग, संदेश प्रत्यक्ष पंचांग अहमदाबाद, विश्वविजय देहली, चन्द्रिका पंचांग बम्बई बंगला पंजी कलकत्ता आदि
कुछ सज्जन तिथिमान को अदृश्य व अप्रत्यक्ष मानकर इस समय भी अप्रत्यक्ष स्थूलगणित को दिव्यदृष्टि का आषंगणित बतलाकर मकरंद ग्रहलाघव सूर्यसिद्धांत करण कुतूहल जयविनोद ब्रह्मसिद्धांत आदि ग्रंथों से पंचांग बनाते है। यह उनका दुराग्रह मात्र है। क्योंकि आचार्यों ने पहले ही भावी अन्तर को दृवयुल्य बनाने के लिये आदेश और उसकी विधि लिखदी है। अतः उनके आदेशानुसार यंत्रों द्वारा दुक्तुल्य गणित न कर लिया जावे तब तक उसे शुद्ध प्राचीन आषंगणित कहना ही असंगत है।
उपरोक्त दिव्यदृष्टि के आर्थसिद्धांतों से बने पंचागों में परस्पर बहुत अन्तर देखा जाता है। इस
प्रकार महर्षियों की दिव्यदृष्टि के गणित में परस्पर ग्रहचारादि में महिनों का अन्तर दिखाना महषियों को
दिव्यदृष्टि एवं उनके ज्ञान को अपूर्ण सिद्ध करके, उनका उपहास एवं अपमान करना है। सूर्य चन्द्रमा के १२ अंशात्मक पूर्वापर सरलान्तर का मान ही तो एक तिथि का मान है, वही वराह पुराण में स्पष्ट कहते हैं यथा
इत्यादि उपरोक्त वाक्यों से स्पष्ट है कि सूर्य चन्द्रमा को दृक्तुल्य स्पष्ट करके दृस्तुल्य तिथि द्वारा ही धर्मशास्त्र का निर्णय करना शास्त्र सम्मत है। स्थूलगणित के पंचांगों की तिथियों में १५-१६ पटी तक
का अन्तर वेध द्वारा प्रत्यक्ष देखा जाता है। अतः कि
तेनापि सुवर्णन कर्णघातं करोति यत् तथा कि तेन शास्त्रेण यन्त्र प्रत्यक्षतः फुटम् ॥
पुराणमित्येव न साधु सर्व नचापि सर्व नवमित्यवद्यम्
सन्तः परीक्ष्यान्यतरभजंते मूढः पर प्रत्ययनेयबुद्धिः ॥
उपरोक्त आषं सूक्तियों के अनुसार जयपुर ज्योतिष यन्त्रालय द्वारा बारम्बार प्रत्यक्षानुभव करके वेधसिद्धसूक्ष्मदृश्य ( शुद्ध प्राचीन ) गणित से श्री सरस्वती पंचांग को तैयार कर विद्वानों की सेवा में सम पंण किया जाता है।
उत्तर भारत राजस्थान में यही एक ऐसा पंचांग है जो जयपुर ज्योतिष यन्त्रालय के यन्त्रों द्वारा
अपने गणित की सत्यता प्रत्यक्ष दिखाने में समर्थ हैं (१) संवत् २००१ से २०१५ तक तिथ्यादि ( तिथि नक्षत्र योग एवं चन्द्रमा ) गणित ग्रह लाघव से की हुई है। उसके बाद सं० २०१६ से सूक्ष्म गणित ( केतकी) से किये गये हैं । (२) सं. २००१ से २०२० तक पंक्ति का प्रथम सूर्य सौर पक्षी है, और अन्तिम दृश्पक्ष से है।
२०२१ से २१०० तक पंक्तिस्य प्रथम सूर्य दृक्पक्षीय, तथा अन्तिम सौर पक्षीय है।
(३) सं. २००१ से २०५० तक अंग्रेजी तारीखें राष्ट्रीय (हिन्दी) और मुसलमानी तारीखों से
पहले दीगई हैं। २०५१ से इनके बाद में ( चन्द्रमासे पूर्व ) हैं। पाठक ध्यान रखकर पढे
(४) सं. २०२० में दृश्य गणित से कार्तिक ही क्षय और कार्तिक ही अधिक मास है। स्थूल
गणित से आश्विन अधिक और मार्गशीर्ष क्षय आता है।
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