GAŃGĀNĀTHAJHA – GRANTHAMÄLĀ [ Vol. 20 ]
BRHATSAMHITA BY SRI VARĀHAMIHIRĀCĀRYA With the Commentary of Bhattotpala and Hindi Commentary
BY ĀCĀRYA NĀGENDRA PĀŅDEYA
FOREWORD BY PROF. RAM MURTI SHARMA VICE-CHANCELLOR
EDITED BY ĀCĀRYA NĀGENDRA PANDEYA
Reader. Jyotisa Department Sampurnanand Sanskrit University Varanasi
आचार्य वराहमिहिर ज्योतिषशास्त्र के शिखर-पुरुष है इनकी प्रशस्त कृतियाँ इस महापुरुष के विराट-व्यक्तित्व को निर्मल दर्पण के समान प्रतिबिम्बित करती है। ज्योति शास्त्र की जिस गहराई, विस्तार तथा चिन्तन और विश्लेषण की सुविशालता को आवार्य ने जितनी सरलता, सहजता एवं सारगर्भिता से प्रस्तुत किया है, उस पर सहमा विश्वास ही नहीं होता। यही प्रतिभान होता है कि वराहमिहिर के रूप में कोई अतिविशिष्ट शक्ति-समलङ्कृत महामानव अथवा पूर्ण दैवी गुणों से समवेत सरस्वती का कोई बरटपुर इस भरत-भू पर ज्योतिषशास्त्र को महिमा-मण्डित करने के लिए ही अवतीर्ण हुमाया त्रिस्कन्धाधिष्ठित ज्योतिषशास्त्र के अपरिमेय सागर के तट-स्कनत्रितय पर गसनवुम्बी स्तम्भ-निर्माता के रूप में इनको सर्वप्रथम स्मरण किया जाता है। वराहमिहिर के अन्द-प्रति के समग्र-समाधाता श्रीमान् उत्पल भट्ट तो इनके दैवी गुणों से इतने अभिभूत है कि इन्हे
साक्षात् भगवान् सूर्य का अवतार ही मानते हैं जिस त्रिस्कन्ध ज्योतिष को भगवान सूर्य ने प्रकट किया था, कलियुग में वह विलुप्त न हो जाय, इसी हेतु वराहमिहिर के व्याज से सूर्य ने स्वयं अवतीर्ण होकर इस शास्त्र की रचना की है।
आचार्य-परम्परा में सिद्धान्तगणितज्योतिष के श्रेष्ठ विद्वानों में आर्यभट, ब्रह्मगुप्त, भास्कर (प्रथम एवं द्वितीय) लल्ल, कमलाकर आदि का नाम अग्रगण्य है। इसी प्रकार फलित ज्योतिष में पराशर, जैमिनी, सत्याचार्य कल्याण वर्मा, वटेश्वर, यवनेश्वर. श्रीपति, नृहरि (जातकसार), नीलकंठ, बलभद्र (होरा रत्न) इत्यादि विद्वानों के नाम प्रशस्त है। परन्तु ज्योतिषगणित तथा फलित में समान-गतिक आचार्यों का वराहमिहिर के अतिरिक्त अभाव ही देखा जाता है। संहितास्कन्ध का तो वराहमिहिर के पश्चात् किसी अन्य आचार्य ने स्पर्श तक नहीं किया है।
बृहत्संहिता के महत्व से सभी विद्वान् सुपरिचित हैं। ज्योतिषशास्त्र के अध्ययन हेतु इसकी अनिवार्यता सम्पूर्ण भारतवर्ष में देखी जा सकती है। बृहत्संहिता के मूल श्लोकों के अनुवाद हिन्दी, अंग्रेजी एवं मराठी तथा बंगला आदि भाषाओं में वर्षों से उपलब्ध हैं किन्तु आचार्य भट्टोत्पल की बृहत्संहिता पर विरचित विवृति का पूर्ण अनुवाद अद्यावधि कहीं पर भी नहीं किया जा सका है। यद्यपि बृहत्संहिता के मूल पाठ का अनुवाद सभी अनुवादकों ने भट्टोत्पल की विवृति से सहायता प्राप्त कर ही किया है, तथापि विवृति का पूर्ण अनुवाद किसी के भी द्वारा नहीं हुआ।
विवृति का अनुवाद संभवत: विषय का विस्तार एवं प्राचीन ग्रन्थों के अप्रचलित शब्दों और क्लिष्ट प्रयोगों के कारण ही नहीं हुआ।
मूल ग्रन्थ सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से प्रथम बार महामहोपाध्याय ‘पं० सुधाकर द्विवेदी’ द्वारा सम्पादित हुआ था, जो यूरोपदेशीय डॉ० कर्ण (Dr. H. Kern, १८६४ ई०) के अंग्रेजी संस्करण के उपरान्त हुआ। तत्पश्चात् यह ग्रन्थ इसी विश्वविद्यालय से संवत् २०२५ (१९६८ ई०) में तत्कालीन ज्योतिष विभागाध्यक्ष पं० अवधबिहारी त्रिपाठी के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुआ।
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