DURGĀSAPTAŚATĪ With Seven Sanskrit Commentaries
[ PRADĪPA-GUPTAVATĪ-CATURDHARĪ-SĀNTANAVĪ-
NĀGOJĪBHAȚȚĪ-JAGACCANDRACANDRIKĀ-DAMSODDHĀRA ]
CANDRAPRABHA (Hindi Commentary)
By DR. GIRIJESA KUMĀRA DĪXITA
CHIEF-EDITOR
PROF. BIHARI LAL SHARMA
VICE-CHANCELLOR
Sampurnanand Sanskrit Vishvavidyalaya, Varanasi
EDITED BY
PROF. GIRIJEŚA KUMĀRA DĪXITA
Ex. Head, Vyākarana Department
Sampurnanand Sanskrit Vishvavidyalaya
Varanasi
Durga Saptsati With Seven Sanskrit Commentaries Published by Sampuranand Sanskrit University, Varanasi
दुर्गासप्तशती सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी द्वारा प्रकाशित
प्रदीप-गुप्तवती-चतुर्धरी-शान्तनवी- नागोजीभट्टी- जगच्चन्द्रचन्द्रिका- दंशोद्धारेति सप्तसंस्कृतटीकासंवलिता चन्द्रप्रभाख्यहिन्दीटीकोपेता
कुलपते: प्रो. बिहारीलालशर्ममहोदयस्य पुरोवाचा विभूषिता
ISBN : 978-93-94343-87-0
गङ्गानाथझा-ग्रन्थमाला
[ २२ ]
दुर्गासप्तशती
सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयः, वाराणसी
हिन्दीटीकाकार: सम्पादकश्च
प्रो. गिरिजेशकुमारदीक्षितः
अध्यक्षचरश्च, व्याकरणविभागस्य
सम्पूर्णानन्द-संस्कृत-विश्वविद्यालये,
समस्त भारतीय विद्या वेदों से ही निःसृत है। वेदविद्या के गूढ़़ रहस्यों की व्याख्या हेतु ही कालान्तर में पुराण एवं इतिहास की सर्जना हुई, यह एक अनुभूत सत्य है
इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् विभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति।।मनीषियों ने पुराणों को शैव, शाक्त एवं वैष्णव वर्गं में विभक्त किया है। शिवमहापुराण, देवीपुराण तथा विष्णुपुराण ये उक्त तीनों वर्गों के प्रतिनिधिभूत ग्रन्थ हैं। शाक्तोपासकों के लिए ‘दर्गासप्तशती” ग्रन्थ तो मानो जीवन-सर्वस्व हैं, जो मार्कण्डेयपुराण से उद्धृत है। यद्यपि मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत अध्याय ८१ से अध्याय ९३ तक महर्षि वेदव्यास द्वारा प्रतिपादित ‘देवीमाहात्म्य” ही, न केवल इस समय अपित हजारों वर्षों से अधिक समय पूर्व से ‘दुर्गासप्तशती’ नाम से प्रसिद्ध है। यामल, वाराही एवं कात्यायनी आदि तन्त्रग्न्थ सप्तशती के मन्त्ोंकी संख्या सात सो में विभाजन को ही ‘सप्तशती नामकरण में मुख्य कारण मानते हैं।
दुर्गासप्तशती का पाठ-विधि के सम्बन्ध में अधिक विस्तारपर्वक विचार करने पर साधकों को विभिन्न तन्त्ों के आधार पर पाठ का क्रम अनेक प्रकार का प्राप्त होता है, जिसमें यथासम्भव समन्वय की दृष्टि से विचार करने पर कवच-अर्गला-कीलक-रात्रिसूक्त-नवार्णजप सप्तशतीपाठ फिर नवार्णजप- देवीसूक्त तथा रहस्यत्रय का पाठ” यही क्रम सप्तशती के पाठ का समीचीन प्रतीत होता है और सम्प्रति यही क्रम प्राचीन काल से सर्वमान्य भी है। फिर भी ‘यथा लोकाचारः” इस उक्ति के अनुसार साधक को अपने देश, काल तथा कुल के अनुसार पाठ का जो क्रम पूर्व-परम्परा से प्राप्त हो, उसी मार्ग का अनुसरण करना चाहए।
यद्यपि आज तक द्र्गासप्तशती के अनेक संस्करण विविध प्रकाशनं से फरासात हो टकेहै औरै समति उपलव्व मी हैं, तथापि प्रदीप, गप्तवती चतु्धरी, शान्तनवी नागोजीभट्टी, जगच्च द्रचन्द्रिका तथा दंशोद्धार इन सात अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्कृत टीकाओं के साथ ‘सम्पर्णानन्द संस्कूत विश्ववद्यालय से प्रकाशितं दुर्गासप्तश्ती का “ये संस्करण निश्चय ही अद्यावधि प्रकाशित सभी संस्करणों में अपना सर्ोत्क्ष् स्थान रखता है। इन सात संस्कत टीकाओं में ‘प्रदीप’ केवल ‘देवीकवच, अर्गलास्तुति तथा देवी बीलक प हंहैं गुप्तवतं का सेन सर्व्यापक है। यह कवचादिनय से लेक प्राधानकाद < रहस्यत्रय तक व्याप्त है। शेष चतुर्धरी, शान्तनवी, नागोजीभट्टी जगच्चन्द्रचन्द्रका तथा दंशोद्धार, येटीकाएँ सप्तशती के तेरहों अध्यायों को अपनी विवेचना का विषय बनाती हैं। इसके साथ ही प्रस्तुत दर्गासप्तशती को लोकोपयोगी एवं साधारण जन के लिए भी सहजतापूर्वक बोधगम्य बनानेकी दृष्ट से उक्त सात संस्करत टीकाओं के साथ आठवीं “‘चन्द्रप्रभा”‘ नामक हिन्दी- टीका को भी इसमें समावेशित किया गया है। अत्यन्त सरल तथा सुबोध हिन्दी-टीका के माध्यम सेयह प्रयास किया गया है कि संस्कत के जो व्यक्ति जानकार नहींहं, वे भी सहजताूर्वक इसके समस्त विषयों क आत्मसात कर सकेंगे |



















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