Adi Shankaracharya Rachit Shivanand Lahri Edited and Interpretation by Kalyan Lal Sharma Published by Choukhamba, Varanasi
शिवानन्दलहरी में शिवभक्ति के आनन्दसागर की हिलोरों का वर्णन है । जैसे हंस कमलनाथ की अभीप्सा करता है, चातक जल से भरे मेघ की ओर टकटकी लगाता है, चकोर चन्द्रमा में मोहित रहता है, और चक्रवाक सूरज उगने की वाट जोहता है, उसी भाँति शिव-भक्त भगवान शिव के चरणों की सेवा की आस लगाये रहता है । वह सुख-सम्पत्ति भोग-विलास, स्वर्ग के सुख नहीं माँगता । उसकी तो केवल एक ही अभीप्सा रहती है—भगवान् शिव के चरणों का आश्रय । यही उसके लिए सबसे बड़ा आनन्द है । इसी आनन्द की तरङ्गे इस स्तोत्र में संचित की गई हैं ।
आचार्य शंकर की भाष्यकार, षण्मत-स्थापक, और सनातन धर्म के प्रचारक के रूप में इतनी प्रसिद्धि है कि भक्त-कवि के रूप में रचित उनके स्तोत्र बहुविदित नहीं हैं। आचार्य ने लगभग सभी देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के लिये अनुपम कवित्वमय स्तोत्रों की रचना की है । शिव, विष्णु और शक्ति की जैसी स्तुति शिवानन्दलहरी, विष्णुकेशादिपादस्तोत्रम्, और सौन्दर्यलहरी में मिलती है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है । उसकी शिवानन्दलहरी में भक्ति-तत्त्व की विवेचना, भक्त के अभीप्साएँ, और भक्तिमार्ग की कठिनाइयों का अनुपम वर्णन है। भगवान् शिव की दिख्य कथाओं की चर्चा द्वारा उनकी भक्वत्सलता के उदाहरण दिये गये है। तो, भक्ति, और भगवान का गुणानुवाद नारद और शाण्डिल्य ने जैसे सूत्रो में किया है, वैसे ही आचार्य शंकर ने इस संगीतमय स्तोत्र में किया है ।
भक्ति की व्याख्या करते हुए महर्षि नारद कहते हैं ।
सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ।
अमृतस्वरूपा च । यल्लथ्या पुमान् सिद्धो भवति ।
अमृतो भवति तृप्तो भवति । यत्प्राप्य न किशिद्वाब्छति न शोचति
न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ।
आत्मारामो भवति ।
(भक्ति ‘उसके प्रति परम प्रेमरूपा हैं, अमृत स्वरूपा है, जिसे प्राप्त कर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है, तृप्त हो जाता है, कुछ और नहीं चाहता, आत्माराम हो जाता है ।)
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