दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर आत्मकल्याण की अभिलाषा रखने वाले अनेक साधक इस अवसर को सार्थक बनाने का प्रयास करते हैं। इस स्थिति में उनके समक्ष सर्वप्रथम यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या करें और कैसे करें ? इसी दृष्टि से साधकोपयोगी आध्यात्मिक कहानियों का यह संकलन प्रस्तुत किया जा रहा है। इन कहानियों को पढ़कर साधन-पथ पर अग्रसर होने की सहज प्रेरणा भी मिलती है एवं साधन का मर्म भी आत्मसात् होता है। गोलोकवासी श्रीसुदर्शनसिंहजी ‘चक्र’ प्रणीत तथा कल्याण में समय-समय पर प्रकाशित इन मार्मिक कहानियों में रोमांचक एवं सुबोध शैली में साधकों का मार्गदर्शन किया गया है, जो परम उपयोगी है।
प्रस्तुत संकलन में सर्वप्रथम दस कथाएँ योग दर्शन के दो प्रारम्भिक सोपानों, पाँच यम–’अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ॥’ (योगसूत्र २।३०) तथा पाँच नियम– ‘शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥’ (योगसूत्र २।३२) पर आधारित हैं।
उक्त दस महाव्रत केवल योगमार्ग के साधक के लिये अनिवार्य हों- ऐसा नहीं, अपितु किसी भी साधन-मार्ग पर अग्रसर होने के लिये जो सदाचार अनिवार्य रूपेण अपेक्षित है, ये उसी को परिभाषित करते हैं। इनमें से प्रत्येक साधन की यह भी विशेषता है कि वह स्वयं में पूर्ण है। यदि एकनिष्ठभाव से किसी एक का भी ‘सम्यक् पालन साधक का स्वभाव बन जाय तो वही एक साधन उसके लिये पूर्णता प्राप्ति का उपकरण बन जाता है। इन कथाओं को पढ़कर यह बात सहज हृदयंगम हो जाती है।
कलिकाल में भगवत्प्राप्ति का सर्वाधिक सुगम मार्ग भगवद्भक्ति बताया गया है। श्रीमद्भागवत (७।५।२३) में भक्ति के भेद बताते हुए नवधा भक्ति का वर्णन मिलता है वर्ण कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ अर्थात् ‘भगवान् के गुण-लीला-नाम-धाम आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन।’ भक्ति के उक्त नौ भेदों के मर्म को नौ कथाओं के माध्यम से समझाया गया है।
श्रीरामचरितमानस में भगवान् श्रीराम के मुखारविन्द से नवधाभक्ति का अभिनव स्वरूप भक्तिमती शबरी के प्रति कहा गया है
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥
गुर पद पंकज सेवा तीसर भगति अमान। चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा ॥
आठव जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखाइ परदोषा ।।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥
नव महुँ एकउ जिन्ह के होई। नारी पुरुष सचराचर कोई ॥
सोइ अतिसम प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥
(रा०च०मा० ३।३५१७-८, ३५, ३६।१-७)
श्री रामचन्द्र जी द्वारा प्रतिपादित नवधाभक्ति के उपर्युक्त नौ भेदों पर भी सत्संग, कथा, गुरुसेवा, गुणगान आदि नौ कहानियाँ लिखी गयी हैं, जो अत्य सरस एवं सुबोध भी हैं।
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