1092 भागवत स्तुति संग्रह भाषानुवाद, कथाप्रसंग और शब्दकोष सहित
‘कलौ नष्टदृशामेषां पुराणार्कोऽधुनोदितः ।’
कलिकाल में सभी लोगों को श्रेयस् तथा निःश्रेयस् देने वाला एक भागवत के समान और कोई ग्रन्थ नहीं है। अस्तु,
भागवत का सूक्ष्म आलोचन करने वाले गुरुओं का यह कहना है कि भागवत में परमात्मा के सब स्वरूपभेदों का प्रतिपादन मिलता है और अधिकारी भक्त उन्हीं भेदों का भक्तिरूप प्रधान साधन से ग्रहण करें और अपना-अपना उद्धार करें।
प्रकृत ग्रन्थ के विषय में निवेदन
प्रकृत ग्रन्थ में पाठकों का सरलता से प्रवेश हो जाय इसलिये प्रकृत ग्रन्थ का विषय थोड़े में दिखलाना अनुचित न होगा। ग्रन्थकार ने प्रकृत ग्रन्थ को नव अध्यायों में विभक्त किया है।
हर एक अध्याय में अनेक प्रकरण हैं। पहले अध्याय में छः प्रकरण हैं। उनमें बाललीला, शिशुलीला, कुमारलीला, पौगण्डलीला तथा किशोरलीला इत्यादि के प्रसंग में जो-जो स्तुतियाँ आयी हैं उनका ठीक-ठीक अर्थ लिखकर उन स्तुतियों के पहले प्रकरण का सम्बन्ध भी आवश्यक एवं उपयोगी लेख से प्रदर्शित किया गया है। जहाँ-जहाँ कोई शंकास्पद स्थल आया है वहाँ वहाँ सुन्दर तथा प्रबल युक्तियों से, निष्पक्ष बात देकर ग्रन्थ के अभिप्राय का निरूपण किया गया है। ग्रन्थपाठ करते समय प्रत्येक प्रकरण में पाठक स्वयं ही इस बात का अनुभव करेंगे।
द्वितीय अध्याय में नव प्रकरण हैं। इनके प्रारम्भमें ही ‘माधुर्य-रस’ शब्द का विचार करके कृष्णोपनिषद्, गोपालतापिनी, बृहद्वामनपुराण के अनुसार गोपियों के चार प्रकार के यूथ बतलाये गये हैं। इस अध्याय में माधुर्य का प्रादुर्भाव, चीरहरण, रास का आह्वान, गोपियों की स्तुति, रासलीला का उत्तरार्ध, गोपी-आक्रन्दन, गोपीविनती, ब्रह्मज्ञानी गोपियाँ आदि एक-से-एक सरस प्रकरण आये हैं।
उनमें वेणुगीत, भ्रमरगीत, गोपीविरहगीत, उद्भवकृत गोपीस्तुति इत्यादि अनेक स्तुतियों में मधुररस उमड़ पड़ता है। प्रत्येक प्रकरण के पहले उपोद्घातरूप से जो भागवतकथा का सूत्रपूर्व प्रक्रान्त है उसका यहाँ भी विस्तृ तरूप से अनुसरण हुआ है तथा इन प्रकरणों में जो बहिर्मुख पुरुष परमात्मा को भी विषयासक्त देखते हैं उनके आक्षेपों का बहुत ही उचित रीति से समाधान किया गया है। पाठकों को चित्त स्थिर करके इस सम्पूर्ण अध्यायका ही पुन: – पुनः आलोचन करना चाहिये। हमारा पूर्ण निश्चय है कि इसके पाठ से पाठकों के हृदय में स्थित अनेक आशंकाएँ प्रत्येक पारायण में नष्ट होती जायँगी और पाठकों को भागवत या अन्य पुराणों में विद्यमान ऐसे ही प्रकरणों की ओर दृष्टिपात करने की एक प्राचीन परम्परागत नयी दृष्टि प्राप्त होगी।
तीसरे अध्याय में फिर भागवत के क्रम का सूत्र चलाया गया है। पहले अध्याय के अन्त में जो किशोरलीला आरम्भ की थी उसकी समाप्ति तथा वृन्दावन की विशेष लीलाएँ, अक्रूरजी द्वारा की हुई भगवान्के सगुण-निर्गुण स्वरूप की स्तुति इत्यादि प्रकरण उठाये हैं। इस अध्याय में चार प्रकरण हैं, जिनमें कई स्तुतियाँ आयी हैं। उन स्तुतियों में अक्रूरजी की स्तुति बारम्बार पढ़ने योग्य है, क्योंकि अक्रू रकृत परमात्मस्वरूपदर्शन का विचार करने से पाठकों की समझ में परमात्मा का व्यापकत्व, अचिन्त्यशक्तिशालित्व तथा व्यापक होकर भी अनेक देशों में सगुणरूप से विराजमान रहना आदि बातें स्पष्टरूप से आ जायँगी।
चौथे अध्याय में परमात्मा ने जो द्वारिका में लीलाएँ की हैं उनका वर्णन तथा उस प्रसंग में आयी हुई अनेक स्तुतियों का पहले की ही भाँति विचारपूर्वक ठीक-ठीक अर्थ दिया गया है। इस अध्यायमें आठ प्रकरण हैं। इनमें रुक्मिणी प्रकरण तथा सुदामाचरित्र तो भगवान्के भक्तवात्सल्य तथा दातृत्व के उत्कृष्ट एवं अलौकिक उदाहरण हैं।
पाँचवें अध्यायमें चार प्रकरण हैं, उनमें सृष्टि की रचना के दो प्रकारों का वर्णन ब्रह्माजी द्वारा की हुई स्तुति, वराह अवतार इत्यादिके वर्णन आये हैं।
छठे अध्याय में चौदह प्रकरण हैं, उनमें सत्ययुग के अवतारों का कथन आरम्भ करके श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध तक की कथाओं तथा तत्तत्प्रसंग में आयी हुई अनेक स्तुतियों का विचार किया गया है।
सप्तम अध्याय में श्रीमद्भागवत के नवम स्कन्धस्थित कथा विषय कहे गये हैं तथा प्रसंग प्राप्त स्तुतियों का सार्थ विवेचन किया गया है।
अष्टम अध्याय में श्रीरामावतार तथा श्री परशुरामावतार का वर्णन है।
नवम अध्याय में उपसंहार करते हुए दशम स्कन्धस्थित शुकदेवकृत वेद-स्तुतियों का बड़े परिश्रमपूर्वक स्पष्ट अर्थ तथा श्रीश्रीधर स्वामीजीके भावबोधक श्लोकों का भी अर्थ दिया गया है।
ग्रन्थकार ने ग्रन्थ लिखने में अत्यन्त परिश्रम उठाया है तथा प्राचीन शास्त्रसिद्धान्त को कहीं भी बाधित नहीं होने दिया है, प्रत्युत अनेक आधार देकर अत्यन्त पुष्ट किया है। शंका के स्थलों पर अनेक सिद्धान्त लिखे हैं, उनके समर्थन में आवश्यक टिप्पणियाँ भी दे दी हैं।
श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का संकलन किया हुआ एक ‘भक्तितरङ्गिणी’ नामक ग्रन्थ संस्कृत में भी है जिसका श्रीमान् पायगुण्डेजी ने प्रणयन किया है। परन्तु उस ग्रन्थ तथा प्रकृत ग्रन्थ की उपयोगिता में बहुत बड़ा अन्तर है। एक तो ‘भक्तितरङ्गिणी’ के ऊपर जो टीका है वह संस्कृत में है, इसलिये वह संस्कृतज्ञ पण्डितों के सिवा और किसी के लिये विशेष उपयोगिनी नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त अभी तक वह अमुद्रित तथा अप्रसिद्ध होने से भी सबके उपयोग में नहीं आ सकती।
प्रकृत ग्रन्थ में एक विशेष बात यह और है, ग्रन्थकार ने स्तुतियों के आदि में जो कथाओं का संक्षिप्त रूप से सयुक्तिक वर्णन किया है उससे इस ग्रन्थ की उपयोगिता सोने में सुगन्ध के समान अपूर्व हो गयी है। अस्तु, ग्रन्थकार अंग्रेजी के बहुत बड़े विद्वान् होकर तथा महान् अधिकार पूर्ण पद पर काम करके भी हृदय में परमात्मविषयक अत्युत्कट प्रेम रखते हैं तथा सर्वथा रक्षणीय प्राचीन परम्परा के अभिमानी हैं। उन्होंने संस्कृत भाषा और शास्त्रीय प्रमेय ग्रन्थ का भी अत्यन्त उच्चतम अनुशीलन किया है। ये बातें इनके सत्संग, सद्गुरु-दया और परमेश्वर की कृपाका स्पष्टरूप से परिचय दे रही हैं।
ग्रन्थकारके ऊपर परमेश्वर का जो अनुग्रह हुआ है उसके कुछ भाग को इन्होंने बड़े परिश्रम से सरल और सुबोध भाषा में पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है। उसको परमार्थ-साधन के लिये अपनाना सुयोग्य तथा ईश्वरीय कृपापात्र पाठकों का परम कर्तव्य है।
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