एक बार देवगण भगवतीके पास गये और उनसे पूछने लगे- हे महादेवी! आप कौन हैं ? ‘कासि त्वं महादेवीति ।’— इसपर वे बोलीं- ‘अहं ब्रह्मस्वरूपिणी । मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यं च।’ अर्थात् मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है।
यही एक शक्तितत्त्व अनेक नाम-रूपोंमें प्रतिष्ठित है। महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती उसी महादेवीके त्रिविध रूप हैं। काली, तारा आदि दस महाविद्याओंके रूपमें वे ही प्रतिष्ठित हैं। दुर्गा, चण्डिका, भवानी, कात्यायनी, गौरी, पार्वती, गायत्री, अन्नपूर्णा, सीता तथा राधा आदि उन्हीं महाशक्तिके विविध नाम-रूप हैं। साधक अपनी अभिरुचिके अनुसार आराधना करता है ।
उपासनामें मन्त्रजप, नामजप, ध्यान, कवच, पटल, पद्धति, हृदय, स्तोत्र, शतनाम, सहस्रनाम आदि कई उपाय परिगणित हैं तथापि आराध्यके समक्ष आत्मनिवेदनका सर्वसुलभ साधन स्तुति या स्तोत्रपाठको बताया गया है। वास्तवमें जो गुण व्यक्तिमें विद्यमान नहीं हैं उनका वर्णन करना ही स्तुति है, परंतु आनन्दकन्द ब्रह्माण्डनायक परमात्मप्रभुमें तो सभी गुण विद्यमान है— ‘समस्तकल्याणगुणामृतोदधिः ॥’ (आलवन्दारस्तोत्र २१)
यद्यपि परमात्मा के सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन करना जीवके वशकी बात नहीं है, परंतु प्रार्थना के माध्यमसे भगवान्के गुणोंका वर्णन करनेपर व्यक्तिका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है तथा मन और वाणी भी पवित्र हो जाती है, इसलिये सर्वगुणसम्पन्न प्रभु ही वास्तविक स्तुतिके अधिकारी हैं। स्तुतिसे शीघ्र ही प्रभु द्रवित होते हैं और आराधक कृतकृत्य हो जाता है, इसीलिये सगुणोपासनामें स्तुति प्रार्थनाका प्राधान्य है। स्तुतिमें मुख्यरूपसे आराध्यकी महिमा और स्तोताके दैन्यनिवेदन तथा प्रपत्तिके भावका निरूपण रहता है। स्तुति-निवेदनमें उपास्य, उपासक तथा उपासना- इस त्रिपुटीका अभेद होकर तादात्म्यकी स्थिति हो जाती है ।
स्तुति-साहित्य अत्यन्त विशाल है। वेदोंके उपासनाकाण्डमें स्तुतिका ही प्राधान्य है। तन्त्रागमों तथा पुराणोंका तो अधिकांश भाग स्तुतियोंसे ही भरा पड़ा है। यही बात भक्तों, संतों तथा आचार्योंकी वाणियों में भी निहित है। अद्वैतनिष्ठाके सर्वोपरि आचार्य श्रीशंकराचार्यजीने सभी देवी-देवताओंकी स्तुतियाँ निरूपित कर भक्त और भगवान्के यथार्थ सम्बन्धका बोध कराया है।
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