Jatak Deepak ( Astrological – Science) Predictions of the nine planets. Compiled by Sri Pt. Balmukund Tripathi Published by Chowkhamba, Kashi
Ancient Astrological – Science with Its Translation in Hindi. Must have a book for knowledge of Jyotish Predictions.
विश्वास-तर्क से बाहर रहकर, मैं हृदय से, यह अवश्य कहना चाहूँगा कि, जिस समय कुण्डली का निर्माण या फल-कथन करना है। उस समय इसे, अवश्य पास रखिए । यह एक अनूठा ग्रन्थ है। तर्क करने वाले भी इसे, एक बार देख लेने पर, कार्य-साधन की आवश्यकता के कारण, इसे रखेंगे अवश्य; ऐसा मेरा असीम विश्वास है । वर्तमान समय की प्राप्त अच्छी से अच्छी पद्धति के द्वारा इसका निर्माण हुआ है। कुछ हटवादी छोड़कर, शेष भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक वाले, इस पद्धति को प्रथम स्थान देते हैं। कुण्डली निर्माण में, ग्रह-स्पष्ट की आवश्यकता पूर्ति, उन पंचांगों से कीजिए, जो गणित के नवीन संस्कारों से युक्त हों। प्राचीन गणित की मिति पर ही संस्कार किया जा सकता है इसलिए किया भी गया है। प्राचीन गणना से ही, धर्म-साधन (व्रतोत्सवादि) करना ठीक है। ऐसी मान्यता भ्रमात्मक है। प्राचीन काल में भी, प्रत्येक अश्वमेघादि यज्ञ में नवीन संस्कार [ सिंहावलोक-सुधार ] किया ही जाता था। पाठकवर्ग से, यह भी कहना है कि, – “माना कि, बिना गुरु-उपदेश के ( स्वकीय प्रयत्न से ) शिक्षा-प्राप्ति करनी, कठिन है। फिर भी, जितनी कठिन है; उससे कहीं अधिक लाभदायक भी है। अतएव, प्रत्येक ज्योतिष-प्रेमी, इसके द्वारा, बिना गुरु के भी, ज्योतिष-ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करें तो, अपेक्षाकृत कठिनता कम एवं लाभ अधिक का अनुभव पायेगा ।”
ग्रन्थ का नाम ‘जातक दीपक है दीपक में वर्तिका होती हैं। अतएव इसकी द्वादश वर्तिकाएँ, द्वादशा दित्य के द्वादश-संक्रमण-बेला का प्रतिनिधित्व करती हुई, जातकों के द्वादश भावों का प्रकाश करेंगी । मेरा भी द्वादशवर्षीय युग, इस सेवा में व्यतीत हुआ; जिससे, जन्म सार्थक हुआ। श्री पिता जी चाहते थे कि, ‘पुत्र, भागवत पढ़े और व्यास गद्दी में बैठकर कथा सुनाए । किन्तु ऐसा न हो सका। उनके पुत्र ने वह शिक्षा पायी, जिससे जन-संकुल के समक्ष में न रहकर, ग्रन्थ-संकुल के समय में रहना पड़ा। इस ग्रन्थ के लिखने में एक भागवत क्या ? कौन प्राप्त-साहित्य न देखना पड़ा इसे, कोई भी, इस ग्रन्थ के सम्पूर्ण पढ़ते ही समझ जाएगा। ‘गद्दी में न बैठ सका ?, जन-रुचि में न आसका ?’ – इसका लेखा जोखा’ भविष्य बतायगा। ग्रन्थ में ‘भूमिका’ लिखी जानी चाहिए ? ( ऐसी परिपाटी है)। किन्तु, ‘भूमिका’ कौन लिखता ? जबकि मेरे सामने, हम और कुछ ग्रन्थ रहे। कौन, इस ग्रन्थ को पढ़कर, भूमिका लिखने में, समय अपव्यय करे और क्यों ?–’क्यों का इल, हमारे पास भी नहीं, स्वयं ही, ‘क्यों’ के हल में हैरान हैं। लेखक, सम्पादक, संकलन कर्ता के रूप में, जब किसी ग्रन्थ प्रकाशन का समय आता है, तब क्या कठिमता होती है ? इसे, ‘बाँझ कि जान, प्रसव की पीरा।’–के कारण, सुनाना व्यर्थ है। निश्चित है कि, यदि प्रकाशक न होता तो, आपके हाथ ‘यह’ भी न होता। यही कारण है कि, लेखक प्रकाशक का सम्बन्ध, सरस्वती लक्ष्मी के समान है। जिसे, जल-वीचि की भाँति होना चाहिए। कैसा सम्बन्ध कर. प्रकाशन हुआ ? इसे, मन्थ-निरीक्षण कर, देखा जा सकता है। अपेक्षाकृत, रुचि पूर्ण होगा।
इस ग्रन्थ के प्रसव में कई युगों ने महान श्रम किया, जिनका आभार प्रदर्शन नाम-रूपों में किया गया है। केवल एक
और ‘अखिल-शाप’ मुझे। क्योंकि, हम केवल लिखते रहे और सारी आपत्तियाँ भोगनी पड़ीं, उसे। [ यथा, लेखनी का संगी मसी-पात्र ]
मेरी बात- अभी तक आत्म-निवेदन में सबकी बात थी और अब मेरी बात है। मेरा स्वाभाविक गुण है कि, ‘शक्ति का उपयोग, भुले हुए रहना।’ मेरा आत्म-विश्वास है कि अभी तक, रुचि पूर्ण, सत्य-निष्ठ होकर कार्य करके दिखा सका हूँ। ऐसी दशा में, स्थानीय सदर बाजार स्थित, ओमर-वैश्य-वंशज श्री रोशनलाल जी। फलितज्ञ) ने, मित्र के नाते, डाइरेक्शन किया। उन्होंने अपने नामानुरूप, ‘रोशनी’ दिखायी कि, हम चल पड़े, आपको ‘जातक-दीपक’ दिखाने । दीपक ( सूर्य और चन्द्र की ज्योति ) के बिना, कोई क्या देख सकता है ? वह बात दूसरी है कि, एक ने पूँछा कि, ‘सूर! दीपक दिखाया जाय ?’–सुनकर सूर ने उत्तर दिया कि, ‘आपके कष्ट करने का सदुपयोग न कर सकूँगा। अतएव सूरेतर जनों को, दीपक की आवश्यकता होती है। उसे दिखाने, हम चल पड़े। क्योंकि मुझे भी सभी लेखक दिखाते रहे हैं। हाँ, एक नए ढंग से दिखाने का यह प्रथम अवसर है। जिसके कारण, इसमें त्रुटियाँ भी होंगी। त्रुटियाँ ४ सेकण्ड में १० होती हैं। यदि हमारे लेख-काल के किसी सेकण्ड में कुछ ‘त्रुटि’ हो गयी हो तो, आप उन्हें पकड़ने में ‘त्रुटि’ न कीजिए । साथ ही उदारता पूर्वक, उन्हें सूचित करके मुझसे ‘क्षमा’ मॅगबाइए। जिससे भविष्य में, इम उस प्रकार की ‘त्रुटि’ न कर सकें। आशा है कि हमें, आपकी यह ‘त्रुटि’ पकड़ने का अवसर न मिलेगा। इसके अनन्तर, श्री इष्टदेव की कृपांश का ध्यान कर, विभिन्न नाम-रूप पदों ( Paragraphas) में लिखित लेख को, शेष करता हूँ।
शममुभयत्र ।
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