Jivan Charya – Vigyan (Grihasth Jeevan me Rahne ki Kala)

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1955 Jivan Charya – Vigyan (Grihasth Jeevan me Rahne ki Kala) by Gita Press, Gorakhpur – Swami Shankaranand Saraswati

कल्याणकामी व्यक्ति को शास्त्र से सम्बन्धित जीवनचर्या (जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त) तथा दैनिकचर्या (प्रात:जागरण से लेकर रात्रि-शयनपर्यन्त) चलानी चाहिये। पूर्वजन्म के भी शुभ-अशुभ संस्कार सूक्ष्म शरीर तथा कारण-शरीर के द्वारा अगले जन्म में प्रारब्ध बनकर साथ रहते हैं।

1955 Jivan Charya – Vigyan (Grihasth Jeevan me Rahne ki Kala) by Gita Press, Gorakhpur

Lifestyle – Science (The art of living in the household life)

शास्त्र की परम्परा में सभी क्रिया-कलापों के लिये विधि निषेध का एक विधान बना हुआ है, जो इस विधान के अन्तर्गत अपने क्रिया-कलापों का सम्पादन करता है, वह वस्तुत: भगवान्की आज्ञा का पालन करता है। उसके वे सभी क्षण जो अनिवार्य रूप से दैनिकचर्या आदि कार्य-कलापों के सम्पादन में लगते हैं, वे क्षण भी उसके पुण्यार्जन में सहायक होते हैं। यदि भावना शुद्ध हो तो वे सभी कार्य-कलाप भगवत्-आराधन के अन्तर्गत होते हैं।

कई लोग चौबीस घंटे में एक-आध घंटा समय निकालकर भगवान्की पूजा, ध्यान, समाधि करते हैं तथा कई लोग परोपकार की भावना से एक-दो घंटे समाज-सेवा आदि कार्यों में भी समय लगाते हैं, परंतु इसके अतिरिक्त समय-बाईस घंटे में वे क्या करते हैं? यदि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या, राग-द्वेष के वशीभूत होकर अपने स्वार्थ की पूर्ति में असत्य का आश्रय लेते हैं झूठ बोलते हैं, बेईमानी करते हैं, शास्त्र की आज्ञा के विपरीत कार्य करते हैं, अपने थोड़े लाभ के लिये दूसरों का बड़ा नुकसान करते हैं तो उन्हें एक-दो घंटे के पुण्य-कर्म का भी फल मिलेगा तथा बाईस घंटे जो पाप-कर्म किया-उसका भी फल भोगना पड़ेगा। इस प्रकार ये स्वर्ग-नरक, सुख दुःख भोगते हुए संसार की इस भवाटवी में अनेक योनियों में जनमते-मरते रहेंगे। इस चक्र से उनका पिण्ड छूटना सम्भव नहीं है। इसलिये चाहिये कि चौबीस घंटे का समय भगवान्की पूजा बन जाय । हम खाते-पीते हैं, सोते हैं, नित्य क्रिया करते हैं-ये सब-के सब भगवत्-आराधन के रूप में परिणत हो जायें इसकी प्रक्रिया हमारे शास्त्र बताते हैं।

अत: कल्याणकामी व्यक्ति को शास्त्र से सम्बन्धित जीवनचर्या (जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त) तथा दैनिकचर्या (प्रात:जागरण से लेकर रात्रि-शयनपर्यन्त) चलानी चाहिये। पूर्वजन्म के भी शुभ-अशुभ संस्कार सूक्ष्म शरीर तथा कारण-शरीर के द्वारा अगले जन्म में प्रारब्ध बनकर साथ रहते हैं। इसलिये पूर्ण सावधानीकी आवश्यकता है।

वस्तुतः सनातन-परम्परा के अनुसार अपनी दिनचर्या और जीवनचर्या चलाना कोई कठिन कार्य नहीं है, इसके लिये केवल दो बातों की आवश्यकता होती है-एक मन में ‘दृढ़ आस्था’, दूसरा अभ्यास’। अपने यहाँ कुछ ऐसे सामान्य कर्म हैं, जो देखने में अत्यन्त साधारण प्रतीत होते हैं और यदि थोड़ा उन पर ध्यान दिया जाय तो उन अत्यन्त साधारण कर्मों से भी जीवन का महान् कार्य सम्पादित होता है। उदाहरणार्थ भोजन करने की प्रक्रिया में भोजन प्रारम्भ करने के पूर्व ‘ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा’ इस मन्त्र से आचमन करने की विधि है तथा ‘ॐ भूपतये स्वाहा, ॐ भुवनपतये स्वाहा, ॐ भूतानां पतये स्वाहा ‘-इन तीन मन्त्रों से तीन ग्रास निकालने की विधि है। इसके अनन्तर ‘ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा॥’ मन्त्र बोलकर पाँच ग्रास लेनेकी विधि है। भोजनके अन्तमें ‘ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा’ मन्त्र बोलकर पुनः आचमन करने की विधि है। प्रारम्भ के आचमन में भोजन को अमृत का बिछावन प्रदान करते हैं। तीन ग्रास निकालकर तीनों लोकों की चराचर सृष्टि को तृप्त करने की भावना करते हैं। पाँच मन्त्रों से पाँच ग्रास लेकर आत्मब्रह्म की तृप्ति के लिये पाँच आहुति अन्तःस्थल की जठराग्निरूपी यज्ञ में प्रदान करते हैं। अन्त के आचमन द्वारा किये हुए भोजन को अमृत द्वारा आच्छादित करते हैं। इस कार्य में एक मिनट का भी समय नहीं लगता। कार्य तो यह कितना साधारण है, परंतु भावना इसमें कितनी महान् है।

इस प्रकार वैदिक जीवनचर्या तथा दैनिकचर्या से जीवन का विकास तथा आत्मोन्नति होना स्वाभाविक है। आजकल के भौतिक वातावरण में सामान्यतः शास्त्र में आस्था रखने वाले लोग भी इन क्रिया-कलापों के अदृष्ट लाभ अर्थात् आध्यात्मिक एवं पारमार्थिक महत्त्व के साथ दृष्ट लाभ यानी शरीर-स्वास्थ्य से सम्बन्धित भौतिक लाभ की भी आकांक्षा रखते हैं। इस भौतिक लाभ को वे वैज्ञानिक रूप में समझना चाहते हैं।

वस्तुतः शास्त्रोक्त प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण रूप आध्यात्मिक और पारमार्थिक ही है, परंतु चूँकि हम संसार के दिखायी देनेवाले अनित्य, नश्वर और अनात्म पदार्थों को अधिक महत्त्व देते हैं, इसलिये सर्वसाधारण को शास्त्रोक्त शुभ कर्मों में प्रवृत्त करने की दृष्टि से एक वीतराग महात्मा स्वामी श्रीशंकरानन्दजी सरस्वती कुछ समय पूर्व ऋषिकेश की पहाड़ियों में तपोमय जीवन व्यतीत करते थे, उनके द्वारा ‘जीवनचर्या-विज्ञान’ के नामसे यह पुस्तक लिखी गयी। लोक-कल्याण की दृष्टि से ही यह कार्य सम्पादित हुआ है। आज भी अपने देश में कुछ ऐसे श्रद्धालु व्यक्ति हैं, जो अपनी जीवनचर्या वेदशास्त्रानुसार चलाना चाहते हैं, परंतु आवश्यक जानकारी के अभावमें वे इस पुनीत कार्य से वंचित रह जाते हैं। श्रीस्वामी जी महाराज ने अर्वाचीन एवं भौतिक विज्ञान से समन्वित तर्क एवं युक्तियों के आधार पर प्राचीन परम्परा एवं वैदिक-जीवनचर्या का विवेचन अत्यन्त सरल शब्दों में प्रस्तुत किया है, जो वास्तव में शास्त्राज्ञा है और आधुनिक जनसामान्य के लिये भी पूर्णतः बोधगम्य है।

अत: वे सभी लोग इस ग्रन्थ से पूर्ण लाभान्वित हो सकेंगे, जो भारतीय संस्कृति में आस्था रखते हुए भी आधुनिक शिक्षा दीक्षा एवं पाश्चात्य संसर्ग के कारण भारतीय रहन-सहन एवं वैदिक परम्पराओं के महत्त्व से अनभिज्ञ हैं। साथ ही जो इसे जीवन में कार्यान्वित करने का प्रयास करेंगे, वे अवश्य कल्याण पथपर अग्रसर होंगे।

Weight 260 g
Dimensions 20.5 × 13.5 × 1.3 cm

Brand

Geetapress Gorakhpur

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