विगत अनेक वर्षों से बालपाठकों, विद्वानों और पञ्चाङ्ग निर्माताओं एवं पञ्चाङ्ग गणित के जिज्ञासुओं को इस ग्रन्थ का अत्यन्त अभाव-सा अनुभव होता रहा है। यह भारतीय ज्यौतिषशास्त्र के सिद्धान्त स्कन्ध से सम्बन्धित करण ग्रन्थ है, जो सिद्धान्त ज्यौतिष के विस्तृत गणित प्रक्रिया को सरल व सहज रूप में प्रस्तुत करने वाला पञ्चाङ्ग निर्माण में अन्यतम सहायक है। प्रस्तुत ज्योतिर्गणित नामक ग्रन्थ प्राय: शक १८१२ के आस-पास रचा गया होगा। इस ग्रन्थ में आरम्भ वर्ष शक १८०० ग्रहण किया गया है। वादिकल आल्मनाक, जिस फ्रेंच ग्रन्थ से बनाया जाता है, उसी के आधार पर यह ग्रन्य भी बनाया गया है। इस ग्रन्थ द्वारा साधित ग्रह, तिथि आदि अत्यन्त सूक्ष्म माना गया है। प्रायः वादिकल आल्मनाक और इस ग्रन्थ से लाये हुए ग्रह आदि को भारतीय पञ्चाङ्ग निर्माण परम्परा में दृश्य पञ्चाङ्ग के निर्माण को प्रोत्साहित करने वाला एकमात्र ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में वर्षमान शुद्धनाक्षत्र अर्थात् ३६५/१५/२२/५३ और अयनगति लगभग ५०.२ विकला प्रति वर्ष ग्रहण की गई है। इस ग्रन्थ में कुल चार भाग नियोजित किया गया है। जिसके प्रथम भाग में पञ्चाङ्ग (तिथि, नक्षत्र, योग, करण, वार) गणित दिया गया है। क्षेपक सर्वत्र स्पष्ट मेषसंक्रान्तिकालीन ग्रहण किया गया है।
द्वितीय भाग में नक्षत्र ताराओं के भोगादि और आकाशीय उदय व अस्त सम्बन्धी विषय है।
तृतीय भाग ग्रहण, युति, शृङ्गोत्रति आदि चमत्कारिक विषयों का समावेश किया गया है। चतुर्थ भाग में त्रिप्रश्न सम्बन्धी लग्न आदि विषयों का दिग्दर्शन कराया गया है। इस ग्रन्थ में प्रायः सर्वत्र विधि, उदाहरण, कोष्ठक, उपपत्ति आदि क्रम से संनियोजित हैं। प्रायः सभी स्तर के गणित करने के लिए कोष्ठक का उपयोग करने के कारण त्रिकोणमिति लागरिथ्म आदि से अनभिज्ञ गणक भी इसके द्वारा गणित सहज व सरल रीति से करने में सफल हो जाता है।
इस प्रकार यह भारतीय ज्यौतिष के दृश्य पञ्चाङ्ग के गणित कार्य हेतु सर्वाङ्गपूर्ण, सर्वसक्षम और सर्वोपयोगी करण ग्रन्थ है। यहाँ प्रसङ्गात् परम्परागत और दृश्य पञ्चाङ्ग सम्बन्धी समसामयिक प्रत्युत्पन्न विवाद को दृष्टिगत कर केदारदत्त जोशी, पूर्वविभागाध्यक्ष, ज्यौतिष विभाग का.हि.वि.वि., वाराणसी के विचार को प्रस्तुत करते हुए समाधान के पथ का अनुसंधान करना अनुचित प्रयत्न नहीं ही माना जाना चाहिए।
राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग के सम्पादक ने अपने पञ्चाङ्ग को सार्थक सिद्ध करने हेतु उसकी भूमिका (पृष्ठ ८-११) में कुछ स्पष्ट तथ्यों को सत्य रूप में देने के बदले ऐसे शोचनीय स्वरूप में प्रस्तुत किया है जिसका तात्पर्य यह निकलता है कि भारतीय पारम्परिक प्राचीन पद्धति के सभी पञ्चाङ्ग पूर्णरूप से अशुद्ध और मूलतः गलत सिद्धान्तों पर निर्मित होते आ रहे हैं। इस बात की पुष्टि हेतु उन्होंने जिन प्रमाणों को प्रस्तुत किया है उनकी विवेचना करने के पूर्व यहाँ पर उस आक्षेप की ओर ध्यान आकृष्ट करना उचित है, जो वक्ष्यमाण प्रकार हैं
१. पाश्चात्य देशों में आज के युग में जिस ग्रहगणित या पञ्चाङ्ग निर्माण पद्धति या गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त प्रभृति -गणितपद्धति का प्रचलन हुआ है, उसका मूल स्रोत भारतवर्ष के उन्हीं आचार्यों की कृतियाँ हैं, जिनका खण्डन हमारे राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग ने किया है।……..
The calculations of the positions of the sun, moon, and the planets by Hindoo astronomers of the day prove wrong as the rules followed by them are based on the duration of the year which is incorrect and on an amount of the precession of the Equinoxes slightly in excess of the true one. They themselves find, especially, in the cases of Eclipses that their calculations do not prove correct. But they are so conservative that no one has hitherto been able to induce them to get their rules corrected in the light of the more accurate calculations of European Astronomers. This is probably due to their having no treatise composed in the manner of those with which they are familiar. Mr. Venkatesh Bapuji Ketkar has composed two such treatises; in the smaller one, he gives rules in the manner of the old Hindoo astronomers, and in the larger, he gives Tables to render the calculations easier. In the olden times the Hindoos recast their astronomy in accordance with the additional knowledge, they derived from the Greeks, but in modern times they have not yet availed themselves of the discoveries of Europeans and hence the positions of the heavenly bodies, given in their calendars are wrong. The attempt therefore made by Mr. Ketkar to re-cast the old rules in accordance with the correct knowledge we have attained deserves every encouragement. If his books are printed and published they will prepare the way for a most desirable improvement in the Hindoo Calendar.
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