THE VRAJAJIVAN PRACHYABHARATI GRANTHAMALA
KALHANA’S RAJATARANGINI
(Chronicle of the Kings of Kashmir)
Edited with ‘SOBHANA’ HINDI COMMENTARY
By Shri Ramtej Shastri Pandey
व्रजजीवन प्राच्यभारती ग्रंथमाला महाकविकल्हणविरचिता राजतरङ्गिणी
( कश्मीरस्थ नरेशानां यथाक्रमं वृत्तविवरणम् ) कश्मीर के राजाओं का इतिहास
‘शोभना ‘ख्यथा हिन्दीव्याख्यया संवलिता
व्याख्याकार: श्रीरामतेजशास्त्री पाण्डेय:
कवि कल्हण और राजतरंगिणी
‘महाकवि कल्हण उस चम्पक महामंत्री के पुत्र थे, जिसने सन् १०८९ से ११०१ तक महाराज हर्षदेव का प्रधानमंत्रित्व किया था। बाल्यकाल से ही पिता के सम्पर्क में रहने के कारण कवि को राजा हर्षदेव के कार्यकलाप एवं उत्थान-पतन की गाथा को निकट से अध्ययन करने का सुयोग सुलभ हो गया था। परिहासपुर को स्थली उनकी जन्मभूमि थी और ब्राह्मण होने के नाते संस्कृत भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार था। इसी कारण अपने ग्रन्थ में यत्र-तत्र उन्होंने योग्य एवं तपस्वी ब्राह्मणों की महत्ता और उनके स्वाभिमान का गुणगान किया है, किन्तु स्वार्थी और लोभी ब्राह्मणों के द्वारा पद-पद पर किये जाने वाले अनशनों की भत्स्ना भी की है। उन्होंने ४२२४ लौकिक वर्ष अर्थात् सन् १९४८ ई० में राजतरंगिणीकी रचना आरम्भ की और सन् १९५० में समाप्त किया । इस काव्यात्मक ग्रन्थ में उन्होंने एक निष्पक्ष इतिहासकार का कर्तव्य निभाया है। उन्होंने कहीं रत्तीभर भी कवि सुलभ चाटुकारिता को प्रश्रय नहीं दिया है। जिस राजा में जो गुण थे, उन्हें जी खोलकर बखाना और जो अवगुण थे, उनको डंके की चोट जनसाधारण के समक्ष प्रकट कर दिया। सो भी सप्रमाण और तिथि- संवत् समेत ।
विल्सन, बुलर और स्टीन आदि कतिपय पाश्चात्य इतिहासप्रेमी विद्वानों का कहना है कि ‘महाकवि कल्हण अपने इतिहासप्रणयनकार्य में पूर्ण सफल रहे हैं। उन्होंने विभिन्न कश्मीरनरेशों के उत्थान-पतन की गाथा को सन् तथा तिथि समेत लिखकर भारतीय इतिहास का बहुत बड़ा उपकार किया है। उनके इस सत्प्रयत्न से विस्मृतिगर्त में पड़े बहुतेरे महापुरुषों के जीवनकाल का निर्णय करने में बड़ी सहायता मिलेगी। उसकी यह कृति देखकर हम इस निचय पर पहुँचते हैं कि कल्हण बड़ा ही चतुर कलाकार था। वह मानव स्वभाव का अद्भुत पारखी था। वह अपने देश की नैतिक, भौतिक एवं आर्थिक परिस्थिति से भली-भाँति परिचित था। प्राचीन इतिहास के अन्वेषण में उसकी सुतीक्षण प्रतिभा विलक्षण कार्य करती थी । वह स्वाभिमानी काव्यशिल्पी था । उसने यह ऐतिहासिक महाकाव्य किसी राजा से पुरस्कार प्राप्त करने के निमित्त नहीं लिखा था। अपितु ऐतिहासिक तथ्य विश्व के समक्ष रखने के उद्देश्य से ही उसने यह भगीरथ प्रयत्न किया और इसमें पूर्ण सफलता प्राप्त की। सच तो यह है कि कन्हण ने राजतरंगिणी इतिहास नहीं, बल्कि काव्य समझ कर लिखी है।
प्राचीन काल में पाश्चात्य देश के विद्वान भी इस प्रकार के काव्यग्रन्थ लिखा करते थे। उन दिनों इतिहास ग्रन्थों का भो काव्यग्रन्थों में ही समावेश समझा जाता था। इसी सिद्धान्त को हृदयंगम करके कल्हण ने भी काव्यात्मक शैली से राजतरंगिणी की रचना की है। इसीलिए ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर अलंकार बहुल भाषा का उन्होंने उपयोग किया है। इसे एक सर्वाङ्ग सुन्दर महाकाव्य का रूप देने के लिए कल्हण ने इसमें उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक आदि बहुत से अलंकारों का समावेश किया है। भाव, भाषा और घटनावैचित्र्यसे तो सारा ग्रन्थ भरा पड़ा है। यहाँ तक कि अन्तरात्मा के भावों को अभिव्यक्त करते समय कवि ने ग्रन्थ की तुन्दिलता को भी नगण्य समझ लिया था ।
यह सब होते हुए भी कल्हण को इतिहास का वास्तविक महत्व पूर्णरूप से ज्ञात था। इतिहास कार को न्यायाधीश के समान पक्षपात शून्य होना चाहिए। यही सोचकर उसने जिन ग्रन्थों से सहायता ली थी, उनका निःसंकोच नामनिर्देश किया है। उसका कहना है कि प्राचीन इतिहासकारों ने कश्मीर पर जो इतिहासग्रन्थ लिखे, उनमें ऐसे दूषण विद्यमान थे कि जिनके कारण यहाँ का सच्चा इतिहास लोगों को मालूम ही नहीं हो सकता था। प्रसंगानुसार कल्हण ने रामायण और महाभारत से भी सहायता ली थी। इसी प्रकार कश्मीरी राजाओं के ग्यारह इतिहासग्रन्थों में से तीन का नामोल्लेख भी किया है। उसने नीलमतपुराण का भी भलीभाँति स्वाध्याय किया था। उपर्युक्त तीन ग्रन्थों में ‘सुव्रतकृत कश्मीरका इतिहास’ क्षेमेन्द्रकृत ‘नृपावली’ और हेलाराजकृत ‘पार्थिवावली’ हैं। कल्हण ने छबिल्लाकर तथा पद्ममिहिर नाम के दो विद्वानों का भी नामोल्लेख किया है। इन प्रामाणिक ग्रन्थों के सिवाय देवालय आदि में प्राप्त शिलालेख, ताम्रपत्र तथा सनद आदि का भी उपयोग किया है। पुरातन प्रशस्तियों, विभिन्न हस्तलिखित ग्रन्थों और पुराने सिकोंको भी उपयोग में लाया गया है। कल्हण ने तत्कालीन दन्तकथाओं का भी उपयोग किया है। किन्तु उनकी प्रामाणिकता के विषय में उसने कुछ नहीं लिखा है। क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टि से दन्तकथाओं का विशेष महत्व नहीं माना जाता । अपने समय के इतिहास को उसने प्रत्यक्ष द्रष्टा होने के कारण बहुत अच्छे ढंग से और विस्तारपूर्वक लिखा है। उसके पूर्व का इतिहास उसने अपने पिता-पितामह आदि पूर्वजों से सुनकर लिखा है। उसके बाद का इतिहास किसी प्रामाणिक व्यक्ति अथवा राजकीय कार्यकर्ताओंके कथनानुसार लिखा गया है।
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