292 Nawadha Bhakti by Gita Press, Gorakhpur
भक्ति ही एक ऐसा साधन है, जिसको सभी सुगमता से कर सकते हैं और जिसमें सभी मनुष्यों का अधिकार है। इस कलिकाल में तो भक्ति के समान आत्मोद्धार के लिये दूसरा कोई सुगम उपाय है ही नहीं, क्योंकि ज्ञान, योग, तप, याग आदि इस समय सिद्ध होने बहुत ही कठिन हैं और इस समय इनके उपयुक्त सहायक सामग्री आदि साधन भी मिलने कठिन हैं, इसलिये मनुष्य को कटिबद्ध होकर केवल ईश्वर की भक्ति का ही साधन करने के लिये तत्पर होना चाहिये। विचार करके देखा जाय तो संसार में धर्म को मानने वाले जितने लोग हैं, उनमें अधिकांश ईश्वर भक्ति को ही पसंद करते हैं। अब हमको यह विचार करना चाहिये कि ईश्वर क्या है और उसकी भक्ति क्या है? जो सबके शासन करने वाले, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् सर्वान्तर्यामी हैं, न्याय और सदाचार जिनका कानून है, जो सबके साक्षी और सबको शिक्षा, बुद्धि और ज्ञान देनेवाले हैं तथा जो तीनों गुणोंसे अतीत होते हुए भी लीला मात्र से गुणों के भोक्ता हैं, जिनकी भक्ति से मनुष्य सम्पूर्ण दुर्गुण, दुराचार और दुःखों से विमुक्त होकर परम पवित्र बन जाता है, जो अव्यक्त होकर भी जीवों पर दया करके जीवों के कल्याण एवं धर्म के प्रचार तथा भक्तों को आश्रय देने के लिये अपनी लीला से समय-समय पर देव, मनुष्य आदि सभी रूपों में व्यक्त होते हैं अर्थात् साकार रूप से प्रत्यक्ष प्रकट होकर भक्तजनों को उनके सार दर्शन देकर आह्लादित करते हैं। और जो सत्ययुग में श्रीहरि के रूप में, त्रेतायुग में श्रीराम रूप में,द्वापर युग में श्रीकृष्ण रूप में प्रकट हुए थे, उन प्रेममय नित्य अविनाशी विज्ञानानन्दघन, सर्वव्यापी हरिको ईश्वर समझना चाहिये।
Reviews
There are no reviews yet.