अथर्वशीर्ष अर्थात् अधर्ववेदका शिरोभाग। वेदके संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् चार भाग हैं; जिन्हें श्रुति कहा जाता है। अधिकांश उपनिषद् प्रायः आरण्यक भागके अंश हैं। ‘अथर्वशीर्ष’ उपनिषद् ही हैं और अधर्ववेदके अन्तमें आते हैं। ये सर्वविद्याओंकी सर्वभूता ब्रह्मविद्या के प्रतिपादक होनेके कारण यथार्थमें ही ‘अथर्वशीर्ष’ कहलाते हैं। पंचदेवों-गणेश, शिव, शक्ति, विष्णु एवं सूर्यके क्रमशः पाँच अथर्वशीर्ष हैं-गणपत्यथर्वशीर्षम्, शिवाथर्वशीर्षम्, देव्यथर्वशीर्षम्, नारायणाथर्वशीर्षम् एवं सूर्याधर्वशीर्षम्।
अपने शास्त्रोंमें इन पंचदेवोंकी मान्यता पूर्णब्रह्मके रूपमें है, इसीलिये इन पंचदेवोंमेंसे किसी एकको अपना इष्ट बनाकर उपासना करनेकी पद्धति है। गणपतिके उपासक गाणपत्य, शिवके उपासक शैव, शक्तिके उपासक शाक्त, विष्णुके उपासक वैष्णव तथा सूर्यके उपासक सौर कहे जाते हैं।
प्रत्येक अथर्वशीर्षका पाठ करनेका विलक्षण प्रभाव बताया गया है. जो सभी पापोंका नाशकर पवित्र करनेके साथ-साथ लौकिक एवं पारलौकिक कामनाओं की सिद्धि में सहायक होता है। इसका सम्यक् विवरण प्रत्येक अथर्वशीर्षके अन्तमें फलश्रुतिके रूपमें देखा जा सकता है।
पंचदेव-अथर्वशीर्ष सूक्त
१. गणपत्यथर्वशीर्षम्
२. शिवाथर्वशीर्षम्
३. देव्यथर्वशीर्षम्
४. नारायणाथर्वशीर्षम्
५. सूर्याथर्वशीर्षम्
परिशिष्ट
१. वैदिक गणेश-स्तवन
२. रुद्र-स्तवन
३. श्रीसूक्त
४. पुरुषसूक्त
५. सूर्यसूक्त
६. वैदिक आरती
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