ShatRudriya ( Rudrabhishek aur Prayog) by Sri Kapildev Narayan Published by Chowkhamba, Kashi
शतरुद्रीय और रुद्राभिषेक में तीन शब्द प्रधान हैं। एक ‘शत’ दो ‘रुद्र और तीन ‘अभिषेक’। तीनों का अर्थ जानना आवश्यक है। क्योंकि निरुक्तकारों का कथन है कि
स्थाणुरयं भारहारः किला भूदधीत्य वेदं न विजानाति योऽर्थम्। योऽर्थज्ञ इत सकलं भद्रमश्नुते नाक मेति ज्ञानविधूत पाप्या॥
निरुक्तकारों का कथन है कि बिना अर्थ जाने जो वेद पढ़ता है वह भार ढोनेवाले जानवर के समान है। अथवा जनशून्य जंगल के उस आम्रवृक्ष के समान है, जो न स्वयं उस अमृतरस का स्वाद जानता है और न किसी अन्य को जानने का अवसर देता है। अतएव वेद के अर्थ का जानकार पूरे कल्याण का भागी होता है। ‘वेदः शिवः शिवोवेदः’ वेद शिव है और शिव वेद हैं। शिव और ‘रुद्र’ ब्रह्म के समानार्थक शब्द हैं। शिव को रुद्र इसलिये कहा जाता है कि ये ‘रुत्’ अर्थात् दुःखों के विनाशक है।
रुतम् दुःखम् द्रावयति नाशयतीति रुद्रः।’
रुद्र की श्रेष्ठता के बारे में रुद्र हृदयोपनिषद् में कथन है-
सर्व देवात्मको रुद्र सर्वे देवा शिवात्मकाः। रुद्रात्प्रवर्तते वीजं बीज योनिर्जनार्दनः॥
यो रुद्रः स स्वयं ब्रह्मा यो ब्रह्मा स हुताशनः। ब्रह्मविष्णुमयोरुद्र अग्निषोमात्मकं जगत्॥
इसके अनुसार यह सिद्ध होता है कि रुद्र ही मूल प्रकृति पुरुषमय आदिदेव साकार ब्रह्म हैं। वेद विहित यज्ञपुरुष स्वयम्भू रुद्र है।
भगवान् रुद्र की उपासना के लिये वेद का सारभूत संग्रह रुद्राष्टाध्यायी ग्रन्थ है। जन कल्याण के लिये शुक्लयजुर्वेद से रुद्राष्टाध्यायी का संग्रह हुआ है। इसके जप, पाठ और अभिषेक आदि साधनों से भगवद्भक्ति, शान्ति, धन, धान्य की सम्पन्नता और सुन्दर स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। वहीं परलोक में सद्गति और परमपद मोक्ष की प्राप्ति होती है। वहीं परलोक में सद्गति और परमपद मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। वेद के ब्राह्मण ग्रन्थों में, उपनिषदों में, स्मृतियों में, पुराणों में शिवार्चन के साथ ‘रुद्राष्टाध्यायी’ या शतरुद्री के पाठ, जप, अभिषेक आदि की महिमा के विशेष वर्णन हैं। वायुपुराण में वर्णन है-
यश्च सागर पर्यन्ता सशैलवन काननाम्। सर्वान्नात्म गुणोपेतां प्रवृक्ष जलशोभिताम् ॥ दद्यात् कांचन संयुक्ता भूमिं चौषाधिसंयुताम्। तस्मादप्यधिकं तस्य सकृद्वुद्रजवाद् भवेत ॥ यश्च रुद्रांजपेन्नित्यं ध्यायमानो महेश्वरम्। स तैनैव च देहेन रुद्रः संजायते ध्रुवम्॥
जो व्यक्ति समुद्र पर्यन्त वन, पर्वत, जल और वृक्षों से युक्त और श्रेष्ठ गुणों से युक्त ऐसी पृथ्वी का दान करता है, जो धन, धान्य, सुवर्ण और औषधियों से युक्त है, उससे भी अधिक पुण्य एक बार के रुद्री जप एवं रुद्राभिषेक से होता है। जो भगवान् रुद्र का ध्यान करके रुद्री पाठ करता है अथवा रुद्राभिषेक यज्ञ करता है, वह उसी देह से रुद्र रूप हो जाता है। यह निश्चित और निस्संदेह है।
अब ‘शतरुद्री’ किसे कहते हैं, इस पर विचार करते हैं। ‘शत’ का अर्थ एक सौ होता है। ‘रुद्र’ का अर्थ कह दिया गया है। अभिषेक का अर्थ विशेष प्रकार का स्नान है। जिससे सौ रुद्रों का वर्णन हो उसे ‘शतरुद्री’ कहते हैं। शतरुद्रीय रुद्राष्टाध्यायी का मुख्य भाग है। मुख्यरूप से रुद्राष्टाध्यायी के पंचम अध्याय को शतरुद्रीय कहा जाता है। क्योंकि इसमें भगवान् रुद्र के एक सौ से अधिक नामों से उन्हें नमस्कार किया गया है।
शतरुद्रीय में भी १०० श्लोकों में ८८ श्लोक पंचम अध्याय के ही होते हैं। इसलिये शतरुद्रीय पाठ से रुद्राभिषेक करने पर भी इच्छित फल प्राप्त होते हैं।
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