2260 Sri Garg Samhinta (Dashkhandatimika ) Sampurn of Maharishi Gagracharya with Hindi Translation by Gita Press, Gorakhpur
Translator :- Pt. Sri Sri Ram Narayan Dutt ji Shashtri Panday “Ram” & Pt. Sri Gadadharji Sharma and Pt. Sri Ramadhar Ji Shukla
‘जिनके मस्तक पर मोरपंख का मुकुट विशेष शोभा देता है, जिनका अंगदेश ( सम्पूर्ण शरीर) नील कमल के समान श्यामल है, चन्द्रमा के समान मनोहर मुख पर कुंचित केश सुशोभित हैं, कौस्तुभमणि की सुनहरी आभा से जिनका वेश कुछ पीतवर्ण का दिखायी देता है (अथवा जो पीताम्बरधारी हैं, जो ( मुरलीकी) मधुर ध्वनिरूपी कलाके स्वामी हैं, कल्याणस्वरूप हैं, शेषावतार बलराम जिनके भाई हैं तथा जो व्रजवनिताओं के वल्लभ हैं, उन राधिका के प्राणेश्वर माधव का मैं भजन करता हूँ।’
गर्गसंहिता घोडशकलापूर्ण भगवान् श्रीकृष्ण के चारु चरितों का सर्वमान्य प्राचीन इतिहासग्रन्थ है। समस्त वैष्णव सम्प्रदायों में इसकी कथाओं एवं प्रमाणों को बड़ी आदर बुद्धि से ग्रहण करने की परम्परा रही है, कारण इस ग्रन्थ के प्रणेता महर्षि गर्ग की गणना वेदों से लेकर महाभारत, तदनन्तर पाणिनिमुनिकृत ‘अष्टाध्यायी’ तक सर्वत्र सम्मानपूर्वक की गयी है। ऋग्वेद का एक सूक्त (६ ४७) आपके ही द्वारा दृष्ट है। इसी प्रकार महामुनि पाणिनि ने ‘गर्गादिभ्यो यञ्’ (अष्टाध्यायी ४।१। १०५) में आपकी गणना अनेक ऋषियों से पूर्व ही की है। इतना ही नहीं, श्रीमद्भागवत के कई प्राचीन टीकाकारों ने गर्गसंहिता के श्लोकों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है। महर्षि गर्ग आंगिरसगोत्र के परम शिवभक्त थे। आपका वह आश्रम, जिसमें आपने गर्गसंहिता का प्रणयन किया, उसकी स्थिति हिमाचल के वायव्यकोण में गर्गाचलशिखर पर मान्य है। आप महाराज पृथु एवं यदुवंशियों के गुरु रहे (महाभारत शान्ति० ५९। ११ तथा भागवत १०। ८) । ज्योतिष पर भी आपके ग्रन्थ ‘गर्गमनोरमा’ एवं ‘बृहद्गर्गसंहिता प्राप्त होते हैं।
प्रस्तुत गर्गसंहिता, इन्हीं महर्षि गर्ग की अप्रतिम रचना है, जो दशखण्डात्मिका अर्थात् दस खण्डों (१ गोलोकखण्ड, २ वृन्दावनखण्ड, ३-गिरिराजखण्ड, ४-माधुर्यखण्ड, ५-मथुराखण्ड, ६-द्वारकाखण्ड, ७ विश्वजित् खण्ड, ८ बलभद्रखण्ड, ९ विज्ञानखण्ड एवं १० अश्वमेधखण्ड) में विभक्त है।
यह सम्पूर्ण संहिता अत्यन्त मधुर श्रीकृष्णलीला से परिपूर्ण है। श्रीराधा की दिव्य माधुर्य भाव मिश्रित लीलाओं का इसमें विशद वर्णन है। श्रीमद्भागवत में जो कुछ सूत्र रूप में कहा गया है, गर्गसंहिता में वही विशद वृत्तिरूप में वर्णित है। एक प्रकार से यह श्रीमद्भागवतोक्त श्रीकृष्णलीला का महाभाष्य है। श्रीमद्भागवत में भगवान् श्रीकृष्ण की परिपूर्णता के सम्बन्ध में महर्षि व्यास ने ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्‘– इतना ही कहा है, महामुनि गर्गाचार्य ने– यस्मिन् सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि तं वदन्ति परे साक्षात् परिपूर्णतमं स्वयम्॥–कहकर श्रीकृष्ण में समस्त भागवत-तेजों के प्रवेश का वर्णन करके उनकी परिपूर्णतमता का वर्णन किया है।
श्री कृष्ण की मधुरलीला की रचना हुई है दिव्य ‘रस’ के द्वारा; उसी रस का रास में प्रकाश हुआ है। श्रीमद्भागवतमें उस रास के केवल एक बार का वर्णन पाँच अध्यायों में किया गया है; किंतु इस गर्ग संहिता में वृन्दावनखण्ड में, अश्वमेधखण्ड के प्रभासमिलन के समय और उसी अश्वमेधखण्ड के दिग्विजय के अनन्तर लौटते समय इस प्रकार तीन बार कई अध्यायों में उसका बड़ा सुन्दर वर्णन है। परम प्रेमस्वरूपा, श्रीकृष्ण से नित्य अभिन्नस्वरूपा शक्ति श्रीराधाजी के दिव्य आकर्षण से श्रीमथुरानाथ एवं श्रीद्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने बार-बार गोकुल में पधारकर नित्यरासेश्वरी, नित्यनिकुंजेश्वरी के साथ महारास की दिव्य लीला की है – इसका विशद वर्णन इसमें हुआ है। इसके माधुर्यखण्ड में विभिन्न गोपियों के पूर्वजन्मों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन है, इसके सूत्र रामकथा से भी जुड़े हैं। गर्गसंहिता में और भी बहुत सी ऐसी नयी-नयी कथाएँ हैं, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं। यह संहिता भक्त-भावुकों के लिये परम समादर की वस्तु है; क्योंकि इसमें श्रीमद्भागवत के गुढ़ तत्त्वों का स्पष्ट रूप में उल्लेख है।
उपासना की दृष्टि से भी जहाँ माधुर्यखण्ड के अन्तर्गत ‘श्रीयमुना-पंचांग’ (कवच, स्तोत्र, पटल, पूजा पद्धति एवं सहस्त्रनाम) निबद्ध है, वहीं बलभद्रखण्ड के अन्तर्गत ‘श्रीबलभद्र-पंचांग’ दिया गया है। संहिता के अंतिम अश्वमेधखण्ड में श्रीगर्गाचार्यद्वारा प्रणीत ‘श्रीकृष्णसहस्रनामस्तोत्र’ भी दिया गया है। ग्रन्थ में इसी प्रकार बीच-बीच में कई सुन्दर स्तोत्र तथा तीर्थमाहात्म्य इत्यादि गुम्फित हैं। गोलोक, अवतारतत्त्व, भूगोल-वर्णन, तीर्थ- परिचय, संगीत, मन्दिर निर्माण, भक्तियोग, यज्ञ, उपासना, ज्ञान इत्यादि विषयों पर भी महत्त्वपूर्ण सामग्री इस ग्रन्थ में समाहित है। सम्पूर्ण संहितामें विविध विषयों का वर्णन भगवान् श्रीकृष्ण की मधुरातिमधुर लीलाओं के परिप्रेक्ष्यमें ही विन्यस्त है; जिससे कृष्णभक्तों के लिये इसका अक्षुण्ण महत्त्व है।
गीताप्रेसद्वारा सर्वप्रथम संवत् २०२६ विक्रमी में गर्गसंहिता का प्रकाशन कल्याण के विशेषांक (वर्ष ४४ अंक १, जनवरी १९७० ई०) में अग्निपुराण-गर्गसंहिता-अंक’ में किया गया था, जिसमें इसके नौ खण्ड प्रकाशित किये गये थे। शेष अंतिम अश्वमेधखण्ड का प्रकाशन इसके अगले वर्ष कल्याणके विशेषांक (वर्ष ४५) में किया गया था।
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