विश्व साहित्य में श्रीमद्धगवद्गीता का अद्वितीय स्थान है। यह साक्षात् भगवान्के श्रीमुख से नि.सृत परम रहस्यमयी दिव्य वाणी है। इसमें स्वयं भगवान्ने अर्जुन को निमित बनाकर मनुष्य मात्र के कल्याण के लिये उपदेश दिया है। इस मेरे से प्रन्यये भगवान्ने अपने यके बहत ही विलक्षण भाव भर दिये हैं, जिनका आजतक कोई पार नहीं पा सका और न पा हो सकता है।
परमवद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने इस अगाध गीताणव मे गहे उतरकर अनेक गुतम अमूल्य रत्न निकाले हैं, जिन्हें उन्होंने इस ‘साधक-संजीवनी’ हिन्दी -टीका के माध्यम से साधकों के कल्याणार्थ उदार हदय से वितरित किया है। गीता की यह टीका हमें अपनी धारणा से दूसरी टीकाओं की अपेक्षा बहुत विलक्षण प्रतीत होती है। हमारा गीता की दूसरी सब टीकाओं का इतना अध्ययन नहीं है, फिर भी इस टीका में हमें अनेक शलोकों के भाव नये और विलक्षण लगे; जैसे-पहले अध्यायका दसवां, उन्नीस-बीसवों और पचीसवा शनोकः दूसरे अध्यापका उनतालीसरवा चालीसवाँ श्लोकः तीसरे अध्यायका तीसरा, दसवाँ, बारहवाँ -तेरहवाँ और तैंतालीसवा श्लोक: चौथे अध्यायका अठारहवाँ और अड़तीस्वां श्लोकः पाँचवें अध्यायका तेरहवाँ चौदहवाँ श्लोक; उडे अध्यायका बीसों और अड़तीस वां श्लोक: सातवें अध्यायका पाँचवाँ और उनीसवाँ श्लोक: आठवे अध्यायका छठा श्लोक: नवें अध्यायका तीसरा और इकतीसा श्लोक; दसवें अध्यायका इकतालीसर्वा श्लोक; स्यारहवें अध्यायका एव्वीसा-सत्ताईसों और पैंतालीसवा-छियालीसवा श्लोकः बारहवें अध्यायका बारहवाँ श्लोक; वेरहवें अध्यायका पहला और उन्नीसों-बीसवां-इक्कीसवाँ श्लोक; चौदहवें अध्यायका तीसरा, बारहवाँ, सत्रहवों और बाईसवाँ श्लोकः पन्द्रहवे अध्यायका सातवाँ और ग्यारहवाँ श्लोक; सोलहवें अध्यायका पाँचर्वा और बीसवां श्लोकः सत्रहवें अध्यायका सातवाँ, आठवा, नवा, दसवाँ श्लोक अग्यरहवें अध्यायका सैंतीसवा और तिहत्तरवाँ श्लोक आदि आदि। अगर पाठक गम्भीर अध्ययन करें तो उसे और भी कई श्लोकोंमें ऑंशिक नये नये भाव मिल सकते हैं । वर्तमान समय में साधन का तत्त्व सरलता पूर्वक बताने वाले ग्रन्थों का प्रायः अभाव-सा दीखता है, जिससे साधकों को सही मार्ग-दर्शन के बिना बहुत कठिनाई होती है। ऐसी स्थिति में परमात्मप्राप्ति के अनेक सरल उपायों से युक्त, साधकोपयोगी अनेक विशेष और मार्मिक बातों से अलंकृत तथा बहुत ही सरल एवं सुबोध भाषा-शैली में लिखित प्रस्तुत ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
परमश्वद्धेय स्वामीजी ने गीता की यह टीका किसी दार्शनिक विचार की दृष्टि से अथवा अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करने के लिये नहीं लिखी है, अपितु साधकों का हित कैसे हो-इसी दुष्टि से लिखी है। परमशान्तिकी प्राप्ति चाहनेवाले प्रत्येक साधक के लिये, चाहे वह किसी भी देश, वेश, भाषा, मत, सम्प्रदाय आदिका क्यों न हो, यह टीका संजीवनी बूटीके समान है। इस टीकाका अध्ययन करने से हिन्दू, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई, मुसलमान आदि सभी धर्मों के अनुयायियों को अपने-अपने मत के अनुसार ही उद्धार के उपाय मिल जायेंगे। इस टीका में साधकों को अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये पूरी सामग्री मिलेगी। परमशान्ति की प्राप्ति के इच्छुक सभी भाई-बहनों से विनम्र निवेदन है कि वे इस ग्रन्थ रत्न को अवश्य ही मनोयोग पूर्वक पढ़ें, समझें और यथासाध्य आचरण में लाने का प्रयत्न करें।…..
श्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा विलक्षण ग्रन्थ है, जिसका आज तक न तो कोई पार पा सका, न पार पाता है, न पार पा सकेगा और न पार पा ही सकता है। गहरे उतरकर इसका अध्ययन-मनन करने पर नित्य नये-नये विलक्षण भाव प्रकट होते रहते हैं। गीता में जितना भाव भरा है, उतना बुद्धि में नहीं आता। जितना बुद्धि में आता है, उतना मन में नहीं आता। जितना मन में आता है, उतना कहने में नहीं आता। जितना कहने में आता है, उतना लिखने में नहीं आता। गीता असीम है, पर उसकी टीका सीमित ही होती है। हमारे अन्तःकरण में गीता के जो भाव आये थे, वे पहले ‘साधक- संजीवनी’ टीका में लिख दिये थे। परन्तु उसके बाद भी विचार करने पर भगवत्कृपा तथा सन्तकृपा से गीता के नये-नये भाव प्रकट होते गये। उनको अब ‘परिशिष्ट भाव’ के रूपमें ‘साधक-संजीवनी’ टीका में जोड़ा जा रहा है।
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