पुराणवाड्मय में ‘श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण’ का अत्यन्त महिमामय स्थान है। पुराणों की परिगणना में वेदतुल्य, पवित्र और सभी लक्षणों से युक्त यह पुराण पाँचवाँ है। शक्ति के उपासक इस पुराण को ‘शक्तिभागवत’ कहते हैं। इस ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में सर्वत्र भगवती आद्याशक्ति की महिमा का प्रतिपादन किया गया है। इस पुराण में मुख्य रूप से परब्रह्म परमात्मा के मातृरूप और उनकी उपासना का वर्णन है। भगवती आद्याशक्ति की लीलाएँ अनन्त हैं, उन लीलाकथाओं का प्रतिपादन ही इस ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है, जिसके सम्यक् अवगाहन से साधकों तथा भक्तों का मन देवी के पद्मपराग का भ्रमर बनकर भक्ति मार्ग का पथिक बन जाता है।
संसार में सभी प्राणियों के लिये मातृभाव की महती महिमा है। मानव अपनी सबसे अधिक श्रद्धा स्वाभाविक रूप से माता के ही चरणों में अर्पित करता है; क्योंकि सर्वप्रथम माता की ही गोद में उसे लोक दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है, इसलिये माता ही सभी प्राणियों की आदिगुरु के रूप में प्रतिष्ठित है। उसकी करुणा और कृपा बालकों के लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण का आधार है; इसीलिये ‘मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव‘ – इन श्रुति वाक्यों में सबसे पहले माता का ही स्थान है जो भगवती महाशक्तिस्वरूपिणी देवी तथा समष्टिस्वरूपिणी सम्पूर्ण जगत् की माता हैं, वे ही सम्पूर्ण लोकों को कल्याण का मार्ग प्रदर्शित करने वाली ज्ञान गुरु स्वरूपा भी हैं।
वास्तव में महाशक्ति ही परब्रह्म के रूपमें प्रतिष्ठित हैं, जो विभिन्न रूपों में अनेकविध लीलाएँ करती रहती हैं। उन्हीं की शक्ति से ब्रह्मा विश्व का सृजन करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शिव संहार करते हैं, अतः ये ही जगत्का सृजन-पालन-संहार करने वाली आदिनारायणी शक्ति हैं। ये ही महाशक्ति नौ दुर्गाओं तथा दस महाविद्याओं के रूप में प्रतिष्ठित हैं और ये ही महाशक्ति देवी अन्नपूर्णा, जगद्धात्री, कात्यायनी, ललिता तथा अम्बा हैं। गायत्री, भुवनेश्वरी, काली, तारा, बगला, षोडशी, त्रिपुरा, धूमावती, मातंगी, कमला, पद्मावती, दुर्गा आदि देवियाँ इन्हीं भगवती के ही रूप हैं। ये ही शक्तिमती हैं और शक्ति हैं; नर हैं और नारी भी हैं; ये ही माता-धाता-पितामह आदि रूपसे अधिष्ठित हैं।
अभिप्राय यह है कि परमात्मस्वरूपिणी महाशक्ति ही विविध शक्तियों के रूपमें सर्वत्र क्रीडा करती हैं— ‘शक्तिक्रीडा जगत् सर्वम्’ सम्पूर्ण जगत् शक्ति की क्रीडा (लीला) है। शक्ति से रहित हो जाना ही शून्यता है।
शक्तिहीन मनुष्य का कहीं भी आदर नहीं किया जाता है। ध्रुव तथा प्रह्लाद भक्ति-शक्तिके कारण ही पूजित हैं। गोपिकाएँ प्रेमशक्ति के कारण ही जगत्में पूजनीय हुई। हनुमान् तथा भीष्म की ब्रह्मचर्यशक्ति; वाल्मीकि तथा व्यास की कवित्वशक्ति; भीम तथा अर्जुन की पराक्रमशक्ति; हरिश्चन्द्र तथा युधिष्ठिर की सत्यशक्ति और शिवाजी तथा राणाप्रताप की वीरशक्ति ही इन महात्माओं के प्रति श्रद्धा-समादर अर्पित करने के लिये सभी लोगों को प्रेरणा प्रदान करती है। सभी जगह शक्ति की ही प्रधानता है। इसलिये प्रकारान्तर vvसे कहा जा सकता है कि ‘सम्पूर्ण विश्व महाशक्तिका ही विलास है। श्रीमद्देवीभागवत में भगवती स्वयं उद्घोष करती हैं ‘सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम्।’ अर्थात् समस्त जगत् मैं ही हैं, मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी सनातन तत्त्व नहीं है।
वास्तव में श्रीमद्देवीभागवत की समस्त कथाओं और उपदेशों का सार यह है कि हमें आसक्ति का त्यागकर वैराग्य की ओर प्रवृत्त होना चाहिये तथा सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने के लिये एकमात्र पराम्बा भगवती की शरण में जाना चाहिये। मनुष्य अपने ऐहिक जीवन को किस प्रकार सुख-समृद्धि एवं शान्ति सम्पन्न कर सकता है और उसी जीवन से जीवमात्र के कल्याण में सहायक होता हुआ कैसे अपने परम ध्येय पराम्बा भगवती की करुणामयी कृपा को प्राप्त कर सकता है इसके विधिवत् साधनों को उपदेशपूर्ण इतिवृत्तों, कथानकों के साथ इस पुराण में प्रस्तुत किया गया है।
‘श्रीमद्देवीभागवत’ एवं ‘ श्रीमद्भागवत’ – इन दोनों में महापुराण की गणना में किसे माना जाय? कभी कभी यह प्रश्न उठता है। शास्त्रों के अनुसार कल्पभेद कथाभेद का सुन्दर समाधान माना जाता है। इस कल्पभेद में क्या होता है? देश, काल और अवस्थाका भेद है- ये तीनों भेद जड़ प्रकृति के हैं, चेतन संवित्में नहीं। कल्पभेद का एक अर्थ दर्शनभेद भी होता है। श्रीमद्भागवत का अपना दर्शन है और श्रीमद्देवीभागवत का अपना दोनों ही दर्शन अपने-अपने स्थान पर सुप्रतिष्ठित हैं। श्रीमद्देवीभागवत का सम्बन्ध सारस्वतकल्प से तथा श्रीमद्भागवतका सम्बन्ध पाद्मकल्पसे है।
‘श्रीमद्देवीभागवतपुराण’ के श्रवण और पठन से स्वाभाविक ही पुण्यलाभ तथा अन्तःकरण की परिशुद्धि, पराम्बा भगवती में रति और विषयों में विरति तो होती ही है, साथ ही मनुष्यों को ऐहिक और पारलौकिक हानि-लाभ का यथार्थ ज्ञान भी हो जाता है, तदनुसार जीवन में कर्तव्य का निश्चय करने की अनुभूत शिक्षा मिलती है, साथ ही जो जिज्ञासु शास्त्रमर्यादा के अनुसार अपना जीवनयापन करना चाहते हैं, उन्हें इस पुराण से कल्याणकारी ज्ञान, साधन, सुन्दर एवं पवित्र जीवनयापन की शिक्षा भी प्राप्त होती है। इस प्रकार यह पुराण जिज्ञासुओं के लिये अत्यधिक उपादेय, ज्ञानवर्धक, सरस तथा उनके यथार्थ अभ्युदयमें पूर्णतः सहायक है।
Reviews
There are no reviews yet.