718 Srimadbhagwat Gita in Kannada (with Meaning) ಶ್ರೀಮದ್ಭಗವದ್ಗೀತೆ (ಸಾಧಾರಣ ತಾತ್ಪರ್ಯ ಸಹಿತ) by Gita Press, Gorakhpur
ಶ್ರೀ ಪರಮಾತ್ಮನೇ ನಮಃ
ಶಾಸ್ತ್ರಗಳ ಅವಲೋಕನ ಮತ್ತು ಮಹಾಪುರುಷರ ವಚನಗಳ ಶ್ರವಣ ಮಾಡಿ ನಾನು ಪ್ರಪಂಚದಲ್ಲಿ ಶ್ರೀ ಭಗವದ್ಗೀತಗೆ ಸಮಾನವಾದ ಕಲ್ಯಾಣಕಾರಿಯಾದ ಯಾವುದೂ ಸಹ ಒಂದು ಉಪಯೋಗೀ ಗ್ರಂಥವಿಲ್ಲವೆಂಬ ತೀರ್ಮಾನಕ್ಕೆ ಬಂದೆನು. ಗೀತೆಯಲ್ಲಿ ಹೇಳಿದ ಜ್ಞಾನಯೋಗ, ಧ್ಯಾನಯೋಗ, ಕರ್ಮಯೋಗ, ಭಕ್ತಿಯೋಗ ಮುಂತಾದ ಸಾಧನೆಗಳಲ್ಲಿ ತಮ್ಮ ಶ್ರದ್ಧೆ, ರುಚಿ ಮತ್ತು ಯೋಗ್ಯತೆಗನುಗುಣವಾಗಿ ಯಾವ ಸಾಧನೆಯನ್ನು ಮಾಡಿದರೂ ಶೀಘ್ರವಾಗಿ ಮನುಷ್ಯನ ಶ್ರೇಯಸ್ಸು ಸಾಧ್ಯ.
ಆದುದರಿಂದ ಮೇಲಿನ ಸಾಧನೆಗಳನ್ನು ಹಾಗೂ ಪರಮಾತ್ಮನ ತತ್ತ್ವಗಳ ರಹಸ್ಯವನ್ನೂ ತಿಳಿಯಲು ಮಹಾಪುರುಷರ ಮತ್ತು ಅವರ ಅಭಾವದಲ್ಲಿ ಉಚ್ಚ ಶ್ರೇಣಿಯ ಸಾಧಕರ ಸಾಧನೆಗಳನ್ನು ಶ್ರದ್ಧಾಪ್ರೇಮ ಪೂರ್ವಕವಾಗಿ ಸಮಾಗಮ ಮಾಡುವ ವಿಶೇಷ ಪ್ರಯತ್ನವಿಟ್ಟುಕೊಂಡು ಗೀತೆಯ ಅರ್ಥ ಮತ್ತು ಭಾವಸಹಿತ ಮನನ ಮಾಡಲು ಹಾಗೂ ಅದಕ್ಕನುಸಾರವಾಗಿ ತಮ್ಮ ಜೀವನವನ್ನು ರೂಪಿಸಿಕೊಳ್ಳಲು ಜೀವನ ಪರ್ಯಂತ ಪ್ರಯತ್ನ ಮಾಡಬೇಕು.
वास्तवमें श्रीमद्भगवद्गीता का माहात्म्य वाणी द्वारा वर्णन करने के लिये किसी की भी सामर्थ्य नहीं है; क्योंकि यह एक परम रहस्यमय ग्रन्थ है। इसमें सम्पूर्ण वेदों का सार-सार संग्रह किया गया है। इसकी संस्कृत इतनी सुन्दर और सरल है कि थोड़ा अभ्यास करनेसे मनुष्य उसको सहज ही समझ सकता है; परन्तु इसका आशय इतना गम्भीर है कि आजीवन निरन्तर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अन्त नहीं आता। प्रतिदिन नये-नये भाव उत्पन्न होते रहते हैं, इससे यह सदैव नवीन बना रहता है एवं एकाग्रचित्त होकर श्रद्धा-भक्ति सहित विचार करने से इसके पद- पद में परम रहस्य भरा हुआ प्रत्यक्ष प्रतीत होता है। भगवान्के गुण, प्रभाव और मर्म का वर्णन जिस प्रकार इस गीताशास्त्र में किया गया है, वैसा अन्य ग्रन्थों में मिलना कठिन है; क्योंकि प्रायः ग्रन्थों में कुछ-न-कुछ सांसारिक विषय मिला रहता है |
इस गीताशास्त्र में मनुष्यमात्र का अधिकार है, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रममें स्थित हो; परंतु भगवान्में श्रद्धालु और भक्ति युक्त अवश्य होना चाहिये; क्योंकि भगवान्ने अपने भक्तों में ही इसका प्रचार करने के लिये आज्ञा दी है तथा यह भी कहा है कि स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनि भी मेरे परायण होकर परमगतिको प्राप्त होते हैं (अ0 १ श्लोक ३२); अपने-अपने स्वाभाविक कर्मीद्वारा मेरी पूजा करके मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त होते हैं (अ० १८ श्लोक ४६) – इन सबपर विचार करनेसे यही ज्ञात होता है कि परमात्माकी प्राप्तिमें सभीका अधिकार है।
परन्तु उक्त विषयके मर्मको न समझनेके कारण बहुत-से मनुष्य, जिन्होंने श्रीगीताजीका केवल नाममात्र ही सुना है, कह दिया करते हैं कि गीता तो केवल संन्यासियोंके लिये ही है; वे अपने बालकोंको भी इसी भयसे श्रीगीताजीका अभ्यास नहीं कराते कि गीताके ज्ञानसे कदाचित् लड़का घर छोड़कर संन्यासी न हो जाय; किन्तु उनको विचार करना चाहिये कि मोहके कारण क्षात्रधर्मसे विमुख होकर भिक्षाके अन्नसे निर्वाह करनेके लिये तैयार हुए अर्जुनने जिस परम रहस्यमय गीताके उपदेशसे आजीवन गृहस्थमें रहकर अपने कर्तव्यका पालन किया, उस गीताशास्त्रका यह उलटा परिणाम किस प्रकार हो सकता है?
अतएव कल्याणकी इच्छावाले मनुष्योंको उचित है कि मोहका त्यागकर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बालकोंको अर्थ और भावके सहित श्रीगीताजीका अध्ययन करायें एवं स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान्के आज्ञानुसार साधन करनेमें तत्पर हो जायँ; क्योंकि अति दुर्लभ मनुष्य-शरीरको प्राप्त होकर अपने अमूल्य समयका एक क्षण भी दुःखमूलक क्षणभङ्गुर भोगोंके भोगनेमें नष्ट करना उचित नहीं है।
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