683 Tattva Chintamani (तत्वचिंतामणि) विविध विषयों पर पूर्व प्रकाशित सर्वोपयोगी लेखों का अनोखा संग्रह by Gita Press, Gorakhpur
प्रस्तुत ग्रन्थ-तत्त्वचिन्तामणि-गीताप्रेस तथा ‘कल्याण’ के संस्थापक ब्रह्यलीन परमश्रनद्दवेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका का है। उनके द्वारा गीताप्रेस की स्थापना के मूल में गीताशास्त्र की मूल प्रेरणा के अनुसार ‘श्रीमद्भगवद्रीता’ के पार्वभौम लोक कल्याणकारी सिद्धान्तों को जन जन तक पहुँचाना ही निहित उद्देश्य और ‘गीता प्रचार’ ( गीताको सर्वजन सुलभ बनाना, घर घर, द्वार द्वार प्रवेश करा देना ) ही उनका एकमात्र और सर्वोपरि जीवन व्रत था; जिसके लिये आपने जीवनपर्यन्त अथक प्रयास किया।
यह बृहत् ग्रन्थ पहले ‘तत्त्वचिन्तामणि’ नाम से पुस्तकाकार कुल सात भागीय प्रकाशित हुआ था वे सातों भाग अभी कुछ वर्षों पहले ही पुस्तकाकार अलग-अलग नामो से कुल तेरह भागों में भी पाठकों के सुविधार्थ प्रकाशित हो चुके हैं। वे सभी अब अलग से भी पुस्तक रूप में उपलब्ध है। प्रेमी पाठकों और जिज्ञासुऑ के मनन अनुशीलन की सुविधा को ध्यान में रखकर उन्हीं सात भागों की सम्पूर्ण विषय-सामग्री को एकस्थानीय करने की दृष्टसे ‘तत्त्वचिन्तामणि’- पूर्व नाम से ही अब उसे ग्रन्थाकार में प्रकाशित किया गया है; जिसे सहदय पाठकों और समस्त भगवत्प्रेमी महानुभावों की सेवा में अर्पित करते हुए हमें सात्विक आनन्द भाव की अनुभूति हो रही है। सभी से हमारा यह विनीत अनुरोध है कि वे कम से कम एक बार इस ग्रन्थ को मनोयोग पूर्वक अवश्य पढ़ें और अपने परिजन तथा मित्रोंको भी पढ़नेके लिये प्रेरित करें।
सत्य-सुख के विधातक जड़वाद के इस विकास युग में, जहाँ ईश्वर और ईश्वरीय चर्चा को व्यर्थ बतलाने और मानने का दुःसाहस किया जा रहा है, जहाँ परलोक का सिद्धान्त कल्पना प्रसूत समझा जाता है, जहाँ ज्ञान-वैराग्य- भक्ति की बातों को अनावश्यक और देश – जाति की उन्नति में प्रतिबन्धक रूप बतलाया जाता है, जहाँ भौतिक उन्नति को ही मनुष्य जीवन का परम ध्येय समझा जाने लगा है, जहाँ केवल इन्द्रिय सुख ही परम सुख माना जाता है और जहाँ प्रायः समूचा साहित्य क्षेत्र जड़-उन्नति के विधायक ग्रन्थों, मौज-शौक के उपन्यासों और गल्पों एवं कुरुचि- उत्पादक शब्दाडम्बरपूर्ण कविताओं की बाढ़ से बहा जाता है, वहाँ भक्ति, ज्ञान, वैराग्य ओर निष्काम कर्म योग-विषयक तात्त्विक विषयों की पुस्तक से सबको सन्तोष होना बहुत ही कठिन है | नास्तिकता की इस प्रबल आँधी के आने पर भी ऋषि मुनि सेवित पुण्यभूमि भारत के सुदृढ़ मूल आध्यायत्मिक सघन छायायुक्त विशाल तरुवर की जड़ें अभी नहीं हिली हैं और उनका हिलना भी बहुत ही कठिन मालूम होता है। इस समय भी भारत के आध्यात्मिक जगत्में सच्चे जिज्ञासुओं और साधुस्वभाव के मुमुक्षुओं का अस्तित्व है, यद्यपि उनकी संख्या घट गयी है। इस अवस्थामें यह आशा करना अयुक्त नहीं होगा कि इस सरल भाषा में लिखी हुई तत्त्वपूर्ण पुस्तक का अच्छा आदर होगा और लोग इससे विशेष लाभ उठावेंगे।
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