Sri Shiv Bhakt Vilash (Life of 63 Devotees of Lord Shiva) Sri 108 Swami Maheshanandgiri Ji Maharaj (Sri Dakshinamurti Math, Varanasi)
शिवभक्त विलास अद्भुत ग्रन्थ है। इसके जैसा भक्त चरित्र का समुद्र विश्व में दुर्लभ है। इसका तामिलीकरण तो बहुत पहले हो गया था। परन्तु उत्तर भारत में इसका परिचय नहीं जैसा ही था। वस्तुतः हिन्दी में शिवभक्ति का साहित्य ही अत्यन्त दुर्लभ है। स्वामी स्वयंप्रकाशगिरि जी ने इसका अनुवाद उपलब्ध करा कर हिन्दी जनता को उपकृत किया है। शिवभक्तों को पाथेय दिया है। विलास में माणिक्यवाक् चरित्र का अभाव भी पूर्ण किया है। श्री राजगोपालन ने इसकी प्राचीन मुद्रित प्रति उपलब्ध न कराई होती तो यह प्रयत्न संभव डी नहीं होता। विद्वान् अनुवादक ने न केवल अनुवाद किया पर कई स्थानों पर अपना अद्भुत विश्लेषण, व रूपकों से रूप्य प्रतिपादन भी किया है। अनुवादक ने प्रयत्नपूर्वक सभी स्थानों के वर्तमान नामों की सूची देकर भक्तों की तीर्थयात्रा को सुगम बनाया है।
इस खण्ड का नाम शिवभक्तविलास भी विषय प्रतिपादक है। काश्मीर से कन्याकुमारी, व हिन्दुकुश से चीन सीमा तक भारत, जिसमें जावा, सुमित्रा, वरुण बाली आदि द्वीप भी सम्मिलित हैं, शिवभतक्तं की अनन्त संख्या रही है। उसमें से यह केवल द्राविड भक्तों का वर्णन ही करता है। तत्रापि केवल ६३ का ही वर्णन यहाँ है। ग्रंथ के दूसरे अध्याय में इनके चुनने का कारण स्पष्ट किया गया है। सूत ने कथा प्रारम्भ करते हुए बताया है कि जब उपमन्यु ने आकाश में प्रदीप्त तेज को नमस्कार किया, तो उनके शिष्यों ने इसका कारण पूछा । जबाब में उपमन्यु ने बताया कि जीव रूप सुन्दर, ब्रह्मरूप शिव से अभेद अनुभव करने जा रहे हैं, अतः उन सुन्दर को मैंने नमस्कार किया है। इस समय स्वामी कार्तिकेय उपस्थित थे, जिन्होंने इसके रहस्य का प्रतिपादन अगस्त्य आदि को किया है, जिसका संक्षेप यहाँ सूत कर रहे हैं सुन्दर द्रविड भाषा में शिवभक्तिरस के गीतों द्वारा उनकी अर्चना करता था। एक बार वै कमलालय में वल्मीकनाथ शिव दर्शन के लिये जा रहे थे, जहाँ देवाश्रय में ६३ भक्तों का सम्मेलन था। आज भी वह स्थान मौजूद है, जो पत्थरों द्वारा निर्मित है। २०६ फीट ६ ईंच लम्बा व १२३ फीट ६ इंच चौड़ा है व इसमें ४६२ खम्भे हैं जो ९ फीट ऊँचे हैं। यह चौकी २ फीट ६ इंच ऊँची है। इसमें एक चबूतरा है जिसे आस्थान मण्डप कहा जाता है। यहाँ ये भक्त बैठे थे। वीरमिन्द ने सुन्दर को शिवभक्तों को नजरअन्दाज कर सीधे शिवमन्दिर में जाते देखकर उनकी शिवनिष्ठा पर सन्देह किया, क्योंकि शिवभक्त का निरादर शिव कभी क्षमा नहीं कर सकते। शिवभक्त को शिव ही समझना वेदान्त की परम्परा रही है।
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