Agni Mahapuran in Sanskrit with Hindi Translation. by Maharishi Vyas
हिन्दुओं के धार्मिक साहित्य में पुराणों का अतिमहत्त्वपूर्ण स्थान है। जनता श्रद्धापूर्वक पुराणों को सुनती है। महापुराणों की संख्या १८ है। उनके नाम इस प्रकार हैं-
१. ब्रह्ममहापुराण, २. पद्यमहापुराण, ३. विष्णुमहापुराण, ४. शिवमहापुराण, ५. भागवतमहापुराण, ६. नारदीयमहापुराण, ७. मारकण्डेयमहापुराण, ८. अग्रिमहापुराण, ९. भविष्यमहापुराण, १०. ब्रह्मवैवर्त्तमहापुराण, ११. लिङ्गमहापुराण, १२. वराहमहापुराण, १३. स्कन्दमहापुराण, १४. वामनमहापुराण, १५. कूर्ममहापुराण, १६. मस्त्यमहापुराण, १७. गरुड़महापुराण, १८. ब्रह्माण्ड महापुराण।
अग्निपुराण पुराणों के क्रम में आठवाँ पुराण है, जिसमें अग्नि को मूल तत्त्व निरूपित किया गया है। मत्स्य एवं स्कन्दपुराण में अग्निपुराण के सम्बन्ध में वर्णित है कि ईशानकल्प-सम्बन्धी जो ज्ञान अग्निदेव ने वशिष्ठ को दिया था, उसी को अग्निपुराण में प्रकाशित किया गया है-
यत्तदीशानकं कल्पं वृत्तान्तमधिकृत्य च। वशिष्ठायाग्निना प्रोक्तमाग्नेयं सम्प्रकाशते ।।
भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में अग्निपुराण भारतीय ज्ञानकोश है। इसके पौराणिक स्वरूप में कारणसृष्टि, कार्यसृष्टि और लय, देवपितरों की वंशावली, समस्त मन्वन्तर तथा वंशानुचरित (सूर्य, चन्द्र प्रभृति) वंशों में उत्पन्न राजाओं का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। इसमें तन्त्र, अलंकार, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण, आयुर्वेद, राजनीति, कोश आदि विविध विषयों का सुन्दर परिचय मिलता है।
भगवान् वेदव्यास द्वारा प्रणीत अठारह महापुराणों में अग्निपुराण का एक विशेष स्थान है। विष्णुस्वरूप भगवान् अग्निदेव द्वारा महर्षि वसिष्ठजी के प्रति उपदिष्ट यह अग्निपुराण ब्रह्मस्वरूप है, सर्वोत्कृष्ट है तथा वेदतुल्य है। देवताओं के लिये सुखद और विद्याओं का सार है। इस दिव्य पुराण के पठन-श्रवण से भोग-मोक्ष की प्राप्ति होती है।
पुराणों के पाँच लक्षण बताये गये हैं-१. सृष्टि उत्पत्ति वर्णन, २. सृष्टि विलय वर्णन, ३. वंश परम्परा वर्णन, ४. मन्वन्तर वर्णन और ५. विशिष्ट व्यक्ति चरित्र वर्णन। पुराण के पाँचों लक्षण तो अग्निपुराण में घटित होते ही हैं, इनके अतिरिक्त वर्ण्य विषय इतने विस्तृत हैं कि अग्निपुराण को ‘विश्वकोष’ कहा जाता है। मानव के लौकिक, पारलौकिक और पारमार्थिक हित के लगभग सभी विषयों का वर्णन अग्निपुराण में मिलता है। प्राचीनकाल में न तो मुद्रण की प्रथा थी और न ग्रन्थ ही सुलभ होते थे। ऐसी परिस्थिति में विविध विषयों के महत्त्वपूर्ण विवेचन का एक ही स्थान पर एक साथ मिल जाना, यह एक बहुत बड़ी बात थी। इसी कारण अग्निपुराण बहुत जनप्रिय और विद्वद्वर्ग समादृत रहा।
सम्पूर्ण सृष्टि के कारण भगवान् विष्णु हैं, अतः अग्निपुराण में भगवान् के विविध अवतारों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। भगवान् विष्णु ही मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण और बुद्ध के रूप में अवतरित हुए तथा कल्कि के रूप में अवतरित होंगे। भगवान् के अवतारों की संख्या निश्चित नहीं है; परन्तु सभी अवतारों हेतु यही है कि सभी वर्ण और आश्रम के लोग अपने-अपने धर्म में दृढ़तापूर्वक लगे रहें। जगत् की सृष्टि के आदिकारण श्रीहरि अवतार लेकर धर्म की व्यवस्था और अधर्म का निराकरण ही करते हैं।
भगवान् विष्णु से ही जगत् की सृष्टि हुई। प्रकृति में भगवान् विष्णु ने प्रवेश किया। क्षुब्ध प्रकृति से महत्तत्त्व, फिर अहंकार उत्पन्न हुआ। फिर अनेक लोकों का प्रादुर्भाव हुआ, जहाँ स्वायम्भुव मनु के वंशज एवं कश्यप आदि के वंशज परिव्याप्त हो गये। भगवान् विष्णु आदिदेव हैं और सर्वपूज्य हैं। प्रत्येक साधक को आत्मकल्याण के लिये विधिपूर्वक भगवान् विष्णु का पूजन करना चाहिये। भगवान् की पूजा का विधान क्या है, पूजा के अधिकार की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है, यज्ञ के लिये कुण्ड का निर्माण एवं अग्नि की स्थापना किस तरह की जाती है। शिष्य द्वारा आचार्य के अभिषेक का विधान क्या है? तथा भगवान् का पूजन एवं हवन किस प्रकार सम्पन्न किया जाय, इसका विस्तृत वर्णन अग्निपुराण में है। मन्त्र एवं विधिसहित पूजन हवन करने वाला अपने पितरों का उद्धारक एवं मोक्ष का अधिकारी होता है। देवपूजन के समान महत्त्व ही देवालय निर्माण का है। देवालय निर्माण अनेक जन्म के पापों को नष्ट करता है। निर्माण कार्य के अनुमोदन मात्र से ही विष्णुधाम की प्राप्ति का अधिकार मिल जाता है। कनिष्ठ, मध्य और श्रेष्ठ इन तीन श्रेणी के देवालयां के पाँच भेद अग्निपुराण में बताये गये हैं-१. एकायतन, २. त्र्यायतन, ३. पञ्चायतन, ४. अष्टायतन तथा ५. पोडशातन। मन्दिरों का जीर्णोद्धार करने वाले को देवालय निर्माण से दूना फल मिलता है। अग्निपुराण में विस्तार से बताया गया है कि श्रेष्ठ देव प्रासाद के लक्षण क्या हैं।
देवालाय में किस प्रकार की देव प्रतिमा स्थापित की जाय, इसका बड़ा सूक्ष्म एवं अत्यन्त विस्तृत वर्णन इसमें है। शालग्रामशिला अनेक प्रकार की होती है। द्विचक्र एवं श्वेतवर्ण शिला ‘वासुदेव’ कहलाती है। कृष्णकान्ति एवं दीर्घ छिद्रयुक्त ‘नारायण’ कहलाती है। इसी प्रकार इसमें संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, परमेष्ठी, विष्णु, नृसिंह, वाराह, कूर्म, श्रीधर आदि अनेक प्रकार की शालग्रम शिलाओं का विशद् वर्णन है। देवालय में प्रतिष्ठित करने के लिये भगवान् वासुदेव की, दशावतारों की चण्डी, दुर्गा, गणेश, स्कन्द आदि देवी-देवताओं की, सूर्य की, ग्रहों की, दिक्पाल, योगिनी एवं शिवलिङ्ग आदि की प्रतिमाओं के श्रेष्ठ लक्षणों का वर्णन है। देवालय में श्रेष्ठ लक्षणों से सम्पन्न श्रीविग्रहों की स्थापना सभी प्रकार के मङ्गलों का विधान करती है। अग्निपुराणोक्त विधि के अनुसार देवालय में देव प्रतिमा की स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा कराने से परम पुण्य होता है। श्रेष्ठ साधक के लिये यही उचित है कि अत्यन्त जीर्ण, अङ्गहीन, भग्न तथा शिलामात्रावशिष्ट (विशेष चिह्नों से रहित) देव प्रतिमा का उत्सवसहित विसर्जन करे और देवालय में नवीन मूर्ति का न्यास करे। जो देवालाय के साथ अथवा उससे अलग कूप, वापी, तड़ाग का निर्माण करवाता या वृक्षारोपण करता है, वह भी बहुत पुण्य का लाभ करता है।
भारतवर्ष में पञ्चदेवोपासना अति प्राचीन है। गणेश, शिव, शक्ति, विष्णु और सूर्य-ये पाँचों देव आदिदेव भगवान् की ही पाँच अभिव्यक्तियाँ हैं; परन्तु सब तत्त्वतः एक ही हैं। गणपति पूजन, सूर्य पूजन, शिव-पूजन, देवी पूजन और विष्णु पूजन के महत्त्व का भी अग्निपुराण में यथा स्थान प्रतिपादन हुआ है।
साधना के क्षेत्र मे श्रेष्ठ गुरु, श्रेष्ठ मन्त्र, श्रेष्ठ शिष्य और सम्यक् दीक्षा का बड़ा महत्त्व है। जिससे शिष्य में ज्ञान की अभिव्यक्ति करायी जाय, उसी का नाम ‘दीक्षा’ है। पाशमुक्त होने के लिये जीव को आचार्य से मन्त्राराधन की दीक्षा लेनी चाहिये। सविधि दीक्षित शिष्य को शिवतत्त्व की प्राप्ति शीघ्र होती है।
जहाँ भक्त मन, वाञ्छा, कल्पतरु भगवान् के सिद्ध श्रीविग्रहों के देवालय हैं, अथवा जहाँ सर्वलोकवन्दनीय श्रीहरि के प्रीत्यर्थ ऋषि-मुनियों ने कठिन साधना की है, वही भूमि ‘तीर्थ’ कहलाती है, जिसके सेवन से भोग-मोक्ष की प्राप्ति होती है। तीर्थ-सेवन का फल सबको समान नहीं होता। जिसके हाथ, पैर और मन संयमित है तथा जो जितेन्द्रिय, लध्वाहारी, अप्रतिग्रही, निष्पाप है, उसी तीर्थयात्री को तीर्थ सेवन का यथार्थ फल मिलता है। ऐसे तीर्थयात्री को पुष्कर, कुरुक्षेत्र, काशी, प्रयाग, गया आदि तीर्थों का सेवन करना चाहिये। गयातीर्थ में शास्त्रोक्त विधि से श्राद्ध करने पर नरकस्थ पितर स्वर्ग के अधिकारी और स्वर्गस्थ पितर परमपद के अधिकारी होते हैं।
काम-क्रोधग्रस्त मनुष्य द्वारा नहीं चाहते हुए भी अज्ञानवश बलात् पापाचरण हो जाता है। पातक तो अनेक प्रकार के हैं, पर कभी-कभी ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी और गुरुतल्पगमन जैसे महापातक भी घटित हो जाते हैं। इन पातकों से विमुक्ति का उपाय प्रायश्चित्त है। पातक, उपपातक, महापातक के परिशमनार्थ अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त का निर्देश किया गया है। यदि कुछ भी न हो सके तो भगवान् विष्णु की स्तुति करे। भगवान् विष्णु के समस्तपापनाशक स्तोत्र के आश्रय से समस्त पातक विनष्ट हो जाते हैं।
आत्मशुद्धि तथा शरीर शुद्धि का एक महान् साधन ‘व्रत’ भी है। शास्त्रोक्त नियम को ही व्रत कहते हैं। इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह आदि विशेष नियम व्रत के ही अंग हैं। व्रत करने वाले को किंचित कष्ट सहन करना पड़ता है, अतः इसे ‘तप’ भी कहते हैं। क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच, इन्द्रियसंयम, देवपूजा, अग्निहोत्र, संतोष तथा चोरी का अभाव-ये दस नियम सामान्यतः सम्पूर्ण व्रतों में आवश्यक माने गये हैं। भगवान् अग्निदेव ने महर्षि वसिष्ठ को तिथि, वार, नक्षत्र, दिवस, मास, ऋतु, वर्ष, संक्रान्ति आदि के अवसर पर होने वाले स्त्री-पुरुष सम्बन्धी व्रत बताये हैं, जिनसे आत्यन्तिक कल्याण का सम्पादन होता है।
ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति भी मानव की सफलता असफलता को प्रभावित करती तथा शुभ अशुभ का विधान करती है। इसी कारण ज्योतिषशास्त्र का संक्षेप में भगवान् अग्निदेव ने सुन्दर उपदेश दिया, जिससे शुभ-अशुभ का निर्णय करने वाले विवेक की प्राप्ति हो सके। वर-वधू के गुण, विवाहादि संस्कारों के मुहूर्त का निर्णय, ‘काल’ को समझने के लिये गणित, युद्ध में विजय प्राप्ति के लिये विविध योग, शत्रु के वशीकरण के लिये शान्ति, वशीकरण आदि षट् तान्त्रिक कर्म, ग्रहण दान और ग्रहों की महादशा आदि सूक्ष्मतापूर्वक विचार किया गया है। इस विवेचन में ज्योतिषशास्त्र की प्रायः उपयोगी बातें समाविष्ट हो गयी हैं।
व्यष्टि और समष्टि के हित के लिये अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार व्यक्तिमात्र के लिये स्वधर्म पालन आवश्यक है। स्वधर्म पालन ही सुख-शान्ति तथा मोक्ष की सीढ़ी है। यज्ञ करना-कराना, वेद पढ़ना-पढ़ाना और स्वाध्याय ब्राह्मण के कर्म हैं। दान देना, वेदाध्ययन करना, यज्ञानुष्ठान करना क्षत्रिय वैश्य के सामान्य कर्म हैं। प्रजा-पालन और दुष्टदमन क्षत्रिय के तथा कृषि-गोरक्षा-व्यापार वैश्य के कर्म हैं। सेवा एवं शिल्परचना शूद्र का धर्म है। ब्रह्मचर्याश्रम मानव के पवित्र जीवन-प्रासाद के लिये ‘नीव का पत्थर’ है। अन्तेवासी को आज के विद्यार्थियों जैसा विलास-प्रमादपूर्ण जीवन नहीं, कठोर संयमित-नियमित अनुशासित जीवन व्यतीत करने की आवश्यकता है, जिससे वह वैयक्तिक और सामाजिक धर्मों के पालन की क्षमता प्राप्त कर सके। विवाह के उपरान्त गृहस्थाश्रम की सम्पूर्ण दिनचर्या का उल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि गृही नित्य देवाराधन, द्रव्य-शुद्धि, शौचाशौच-विचार एवं शुद्ध आचरण द्वारा किस प्रकार आत्मकल्याण और समाजकल्याण का सम्पादन करे। सद्गृहस्थ के लिये जो यहाँ तक कहा गया है कि ‘श्री और समृद्धि के लिये गाय, चूल्हा, चाकी, ओखली, मूसल, झाडू एवं खम्भे का भी पूजन करे। पौत्र के जन्म के बाद गृहस्थ को वानप्रस्थ धारण करके पत्नीसहित तपःपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहिये। संन्यासी का जीवन तो त्याग का मूर्तिमान् स्वरूप है। संन्यासी शरीर के प्रति उपेक्षाभाव रखता हुआ एकाकी विचरता है और मननशील रहता है। कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस- इन चार प्रकार के संन्यासियों में अन्तिम सर्वश्रेष्ठ है, जो नित्य ब्रह्म में स्थित है।
वास्तु-विद्या का भी अग्निपुराण में यत्र-तत्र प्रभूत वर्णन है। भूमि के विस्तार का दिग्दर्शन कराते हुए विभिन्न द्वीप तथा देशों का वर्णन किया गया है। रहने के लिये गृह-निर्माण कैसे हो, फिर नगर-निर्माण की योजना कैसी हो- इसे भी युक्तिपूर्वक समझाया गया है। गृहनिर्माण और नगर निर्माण के साथ देव-प्रतिमा और देवालय निर्माण का भी विस्तृत विवरण है। नगर, ग्राम तथा दुर्ग में गृहों तथा प्रासादों की वृद्धि हो, इसकी सिद्धि के लिय ८१ पदों का वास्तुमण्डल बनाकर वास्तु देवता की पूजा अवश्य करनी चाहिये।
पूजा में पुष्पों का विशेष स्थान है। देव पूजन में मालती, तमाल, पाटल, पद्म आदि विभिन्न पुष्यों के विभिन्न
फल होते हैं। परन्तु देवपूजन के लिये श्रेष्ठपुष्प हैं-अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, दया, शम, तप, सत्य आदि। इन भाव पुष्पों से
अर्चित श्रीहरि शीघ्र सन्तुष्ट होते हैं। भाव-पुष्पों से अर्चना करने वाले को नरक-यातना नहीं सहनी पड़ती; अन्यथा पापाचारी
को अवीचि, ताम्र, रौरव, तामिस्त्र आदि नरकों के कष्ट भोगने पड़ते हैं। पुण्यात्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। विशेष पर्वपर विशेष तीर्थ में, विशेष तिथि में दान का अलग-अलग फल प्राप्त होता है। दान से मोक्ष तक की प्राप्ति हो सकती है। परन्तु फल की कामना से दिया गया दान मोक्ष की प्राप्ति न करवाकर व्यर्थ चला जाता है। गायत्री मन्त्र की व्याख्या करते हुए भगवान् अग्निदेव ने बताया है कि जो लोग भगवती गायत्री का एवं गायत्री मन्त्र का आश्रय लेते हैं, उनके शरीर और प्राण दोनों की रक्षा होती है।
राज्य में सुख-शान्ति बनाये रखने के लिये राजा को अपने धर्म का भलीभाँति पालन करना चाहिये। शत्रुसूदन, प्रजापाल, सुदण्डधारी, संयमी, रण, कलाविद्, न्यायप्रिय, दुर्गरक्षित, नीतिकुशल राजा ही अपने धर्म का पालन कर सकता है। जो राजा धनुर्वेद के शिक्षण-प्रशिक्षण की पूर्ण व्यवस्था रखता है और जो लोक-व्यवहार में परम कुशल है, उसका पराभव नहीं होता।
स्वप्न और शकुन का भी जीवन पर शुभ और अशुभ प्रभाव पड़ता है। सभी स्वप्न और शकुन प्रभावशाली नहीं होते; पर जिनसे अशुभ होता है, उनके निवारण का उपाय भी बताया गया है। शुभ-लक्षण सम्पत्र त्री या पुरुष की संगति सदा कल्याणकारी होती है; अतः इनके लक्षणों का भी विस्तृत वर्णन है। जीवन श्रीयुक्त रहे, अतः हीरा, मोती, प्रवाल, शङ्ख आदि रत्नों को परीक्षण के उपरान्त ही धारण करना चाहिये, जिससे शुभ का विधान हो।
भगवान् अग्निदेव ने चारों वेदों की सभी शाखाओं का विस्तृत वर्णन करके चारों वेदों की विभिन्न ऋचाओं या सूक्तों के सहित पाठ, जप हवन करने का विधान बताया, जिससे भुक्ति मुक्तिकामी पुरुष को अभीष्ट की प्राप्ति तथा सभी उत्पातों की शान्ति होती है। जैसे ऋग्वेद के ‘अग्निमीले पुरोहितम्’- इस सूक्त का सविधि जप करने से इष्टकामनाओं की पूर्ति होती है। भगवान् अग्निदेव ने सूर्य, चन्द्र, यदु, पुरु आदि अनेक वंशों का वर्णन किया, जिनका चरित्र सुनने से पापों का विनाश होता है। यदुवंश में भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार धर्म-संरक्षण, अधर्म नाश, सुरपालन और दैत्य मर्दन के लिये ही हुआ था।
स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी ज्ञान भी मनुष्य के लिये आवश्यक है। अतः स्वास्थ्य के सिद्धान्त, रोग के भेद एवं कारण, औषधि का विवेचन, वैद्य का कर्त्तव्य उपचार के उपाय, शरीर के अवयव, गज और अश्व की चिकित्सा आदि का वर्णन करते हुए आयुर्वेद का ज्ञान कराया गया है, जो मृत को भी प्राण देता है। अनिष्ट-निवारण मन्त्रों के प्रयोगों द्वारा भी होता है, अतः मन्त्र-तन्त्र की परिभाषा और भेद-प्रभेद बताकर शिव, सूर्य, गणपति, लक्ष्मी, गौरी आदि देवी-देवताओं के अनेक मन्त्र और मण्डल बताये गये हैं, जिनको सिद्ध करके प्रयोग करने से विष-शमन, बालग्रह आदि का निवारण होता है।
समाज में उसका बड़ा आदर होता है, जिसकी वाणी में रस है, जिसमें अभिव्यक्ति की कुशलता है और जिसमें प्रस्तुतीकण की क्षमता है। अतः अग्निपुराण में काव्य मीमांसा का अतिविस्तृत वर्णन है। काव्याङ्ग, नाटक-निरूपण, रसभेद, शब्दालंकार, अर्थालंकार, शब्दगुण आदि शास्त्रीय विषयों की सूक्ष्म विवेचना है। यह इसलिये कि- ‘अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः।’ (अग्नि, ३३९।१०)। लोक परलोक और परमार्थ के सर्वोपयोगी स्थूल-सूक्ष्म विषयों के वर्णन का यही उद्देश्य है कि मानव सुखी, शान्त, समृद्ध एवं स्वस्थ जीवन व्यतीत करते हुए परम तत्त्व को प्राप्त करे। जीवन में अर्थ और काम दोनों हों, पर वे हों धर्म के द्वारा नियन्त्रित। जीवन धर्मनिष्ठ हो और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति हो। धर्मशास्त्र का उपदेश देते हुए बताया गया है कि ‘धर्म वही है, जिससे भोग और मोक्ष, दोनों प्राप्त हो सके। वैदिक कर्म दो प्रकार
का है-एक प्रवृत्त और दूसरा निवृत्त। कामनायुक्त कर्म को ‘प्रवृत्तकर्म’ कहते हैं। ज्ञानपूर्वक निष्कामभाव से जो कर्म किया जाता है, उसका नाम ‘निवृत्तकर्म’ है। वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, इन्द्रियसंयम, अहिंसा तथा गुरुसेवा-ये परम उत्तम कर्म निःश्रेयस (मोक्षरूप कल्याण) के साधन हैं। इन सबमें भी सबसे उत्तम आत्मज्ञान है।’ (अग्नि १६२।३-७)
‘भुक्ति’ से भी महत्त्वपूर्ण ‘मुक्ति’ है। जिससे जीवात्मा सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त होकर परमात्मस्वरूप हो जाता है। ‘ज्ञान’ वही है, जो ब्रह्म को प्रकाशित करे और ‘योग’ वही है, जिससे चित्त ब्रह्म से संयुक्त हो जाय। ‘ब्रह्मप्रकाशकं ज्ञानं योगस्तत्रैकचित्तता।’ (अग्नि. २७२।१) अतः भगवान् अग्निदेव ने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि अर्थात् अष्टाङ्गयोग का वर्णन किया, जिससे आत्मा परमात्मचैतन्यरूप हो जाय। परमात्म- चैतन्य की प्राप्ति ही परम प्राप्तव्य है। इसी की प्राप्ति के दो प्रधान मार्ग-ज्ञानप्रतिष्ठा और कर्मनिष्ठा का प्रतिपादन करने वाली श्रीमद्भागवतगीता का संक्षेप में कथन करने के उपरान्त यमगीता का भी वर्णन किया गया है।
वस्तुतः शरीर से आत्मा पृथक् है। नेत्र, मन, बुद्धि आदि आत्मा नहीं है। आत्मा इनका नहीं, ये आत्मा के हैं। जीवात्मा परमात्मा का सनातन अंश है। ब्रह्मत्व की प्राप्ति में जीवन की परम सफलता है। इसके लिये ज्ञानयोग श्रेष्ठ साघन है। साधना के द्वारा जीव जगत् के स्थूल-सूक्ष्म बन्धनों से मुक्त होकर ब्रह्मत्व की प्राप्ति कर लेता है। साधक को ‘शरीर- भाव’ से अतीत होना आवश्यक है। अपवाद की बात दूसरी है। अन्यथा सभी को अभ्यास करना ही पड़ता है। इसलिये पूजा, व्रत, तप, वैराग्य और देवाराधन का विधान है। आत्मोकर्ष के लिये सभी को अपने-अपने स्तर के अनुकूल साधन- पथ चुनना चाहिये। सभी का स्तर एक नहीं, अतः सभी का अधिकार भी समान नहीं। देवोपासना से भी परमतत्त्व की प्राप्ति हो सकती है। देवोपासकों का जो ‘विष्णु’ है, वही याज्ञिकों का ‘यज्ञपुरुष’ है और वही ज्ञानियों का ‘मूर्तिवान् ज्ञान’ है। जीवात्मा किसी पथ का आश्रय ले, अन्तिम उद्देश्य यही है कि आत्मा और परमात्मा का एकत्व प्रकाशित हो जाय। सच्चा श्रेय तो सदा परमार्थ में ही निहित रहता है। परमार्थ की दृष्टि से तो आत्मा और परमात्मा का नित्य अभिन्नत्व है। अग्निपुराण में श्रीसूतजी ने कहा है- ‘भगवान् विष्णु ही सार से भी सार तत्त्व हैं। वे सृष्टि और पालन आदि के कर्ता और सर्वत्र व्यापक हैं।’ ‘वह विष्णुस्वरूप ब्रह्म मैं ही हूँ इस प्रकार उन्हें जान लेने पर सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है।’
ऐसे वेदसम्मत, सर्वविद्यायुक्त और ब्रह्मस्वरूप अग्निपुराण का जो पठन, श्रवण, अध्ययन और मनन करता है, उसे भोग और मोक्ष दोनों की ही प्राप्ति होती है- –
सारात्सारो हि भगवान् विष्णुः सर्गादिकृद्विभुः। ब्रह्माहमस्ति तं ज्ञात्वा सर्वज्ञत्वं प्रजायते। (अग्नि. ११४)
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