महर्षि अग्निवेशप्रणीत चरक संहिता
श्रीचक्रपाणिदत्तविरचित ‘आयुर्वेददीपिका’ व्याख्या एवं आयुर्वेददीपिका’ की तत्त्वप्रकाशिनी हिन्दी व्याख्या तथा यत्र-तत्र श्रीगङ्गाधरकविरत्नकृत “जल्पकल्पतरु’ की हिन्दी व्याख्या एवं श्लोकानुक्रमणिका सहित
सम्पादक एवं व्याख्याकार :डॉ. लक्ष्मीधर द्विवेदी
सहव्याख्याकार :डॉ. बी. के. द्विवेदी | डॉ. पी. के. गोस्वामी
प्रथम भाग (सूत्रस्थान)
द्वितीय भाग (निदान, विमान, शारीर एवं इन्द्रियस्थान)
तृतीय भाग – (चिकित्सा स्थान)
चतुर्थ भाग (कल्प एवं सिद्धिस्थान)
CARAKA SAMHITA (Charak Sahinta) OF MAHARŞI AGNIVESA With
‘Ayurveda-Dipika’ Sanskrit Commentary by Śri Cakrapāṇidatta,
‘Tattvaprakāśini’ Hindi Commentary of ‘Ayurveda-Dipikā’ and on some places Hindi Commentary of ‘Jalpakalpataru’ of Gangadhar and Sloka Index.
Editor & Commentator
Dr. LAKSHMIDHAR DWIVEDI A.B.M.S., D.A.Y.M., Ph.D. (Maulika Siddhanta)
Acharya (Nyaya Vaisheshika)
Ex. Head of the Deptt., Ayurveda Samhita
I.M.S., B.H.U., Varanasi
Co-Editor & Commentator
Dr. B. K. Dwivedi
Head of the Deptt., Maulika Siddhanta And Dr. P. K. Goswami
Head of the Deptt., Samhita Deptt. I. M. S., B.H.U., Varanasi
PART-I (SUTRASTHANA)
PART-II (Nidāna, Vimana, Sarira & Indriya Sthana)
PART-III (CIKITSA STHANA)
PART-IV (KALPA & SIDDHI STHANA)
आयुर्वेद में चरक संहिता को आकर ग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया गया है तथा यह आयुर्वेद का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है।
आयुर्वेद में चरक संहिता, सुश्रुत संहिता तथा वाग्भट संहिता को बृहत्त्रयी के रूप में मान्यता मिली है। चरक संहिता में विषय वस्तु सम्पूर्ण जीवन दर्शन से सम्बन्धित तथ्यों के आधार पर वर्णित है। आयु एवं वेद दोनों पद के निरुक्तिपरक, जितने भी अर्थ होते हैं सबका व्यवहार चरक संहिता में दर्शाया गया है।
इस ग्रन्थ के मूल लेखक अग्निवेश, प्रतिसंस्कर्ता महर्षि चरक तथा पूरक आचार्य दृढ़बल है। प्रस्तुत चरक संहिता ऋषिप्रणीत है; क्योंकि चरक संहिता में आचार्य चरक ने अपना किसी तरह का परिचय नहीं दिया है जो कि उनके मानवमात्र की कल्याण भावना को प्रदर्शित करती है। संभवतः जितनी टीका व अनुवाद इस ग्रन्थ का हुआ, उतनी टीका अन्य ग्रन्थों की नहीं हुई।
अधुना चरक संहिता की चक्रपाणिदत्त द्वारा विरचित ‘आयुर्वेददीपिका’ टीका अतिलोकप्रिय है, परन्तु संस्कृत भाषा में होने के कारण छात्रों, शिक्षकों, अनुसंधानकर्ताओं के सामने कुछ कठिनाई आती चरक संहिता के वस्तुओं का आयुर्वेद में व्यवहार का प्रतिशत बहुत कम है। कारण यह है कि तकाल की अवधारणाओं को सूत्ररूप में समझकर उनका व्यवहार करना अतिकठिन कार्य है। ऐसी स्थिति में टीकाकारों के विचारों के तरफ ध्यान जाता है परन्तु भाषायी कठिनता के कारण निराश होना पड़ता है।
परमादरणीय गुरुवर्य डॉ. लक्ष्मीधर द्विवेदी आयुर्वेद के साथ साथ संस्कृत के भी प्रकाण्ड विद्वान है। अध्ययनकाल में प्रायः हम लोग उनसे टीकाओं की हिन्दी व्याख्या करने का अनुरोध करते रहे। अंततः सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने इस महती कार्य को स्वीकार किया तथा चरक संहिता पर सर्वाधिक लोकप्रिय टीका चक्रपाणिदत्त द्वारा विरचित आयुर्वेददीपिका टीका पर ‘तत्त्वप्रकाशिनी’ हिन्दी व्याख्या प्रारंभ किया जो पूर्णता की ओर अग्रसर हैं। इसमें आवश्यकतानुसार यथास्थान आचार्य गंगाधर राय द्वारा विरचित ‘जल्पकल्पतरु’ टीका की भी हिन्दी व्याख्या की गई है। पूर्व विचार था कि दोनों टीकाओं की तुलनात्मक व्याख्या प्रस्तुत की जाय परन्तु गुरुवर्य की निजी कारणों से यह निर्णय लिया गया कि प्रथमतः आयुर्वेददीपिका की व्याख्या की जाय। यदि भगवत् कृपा से गुरुदेव का स्वास्थ्य बना रहा तो जल्पकल्पतरु टीका की भी व्याख्या करने की कल्पना की गई है। प्रस्तुत ‘तत्वप्रकाशिनी’ व्याख्या आपके सम्मुख उपस्थित है। यह गुरुवर्य की लोक कल्याण की भावना का परिणाम है। इस व्याख्या में हम दोनों शिष्यों की सहभागिता रही है। जो इसमें त्रुटियाँ होगी वह हम दोनों शिष्यों की प्रमादवश होगी। अतः उसके लिए हम व्यक्तिगत रूप से क्षमाप्रार्थी है। प्रस्तुत व्याख्या कैसी है, इसका निर्णय पाठकगण ही करेंगे। इसका प्रथम भाग सूत्रस्थान पूर्व में पाठकों के हाथ में जा चुका है। निदान, विमान, शारीर और इन्द्रियस्थान इस द्वितीय भाग में है। चिकित्सा स्थान आदि उत्तरार्द्ध का भी कार्य पूर्ण हो चुका है तथा आशा है कि अतिशीघ्र वह भी पाठकों के हाथ में होगी, जिससे छात्र, शिक्षक, अनुसंधानकर्ताओं के लिए चरक संहिता में वर्णित विभिन्न अवधारणाओं एवं चिकित्सा व्यवहारों को समझना आसान हो जायेगा।
Reviews
There are no reviews yet.