2228 Panchang Poojan Padhati by Gita Press, Gorakhpur (समस्त मांगलिक कार्यों, देवपूजा के पूर्व अनिवार्य पाँच कर्मकाण्डीय कृत्यों की सम्पूर्ण प्रयोग-विधि)
भारतीय वैदिक सनातन संस्कृति में देवाराधना, देवोपासना और साधना का सर्वोपरि महत्त्व है। आराधना आराध्य और आराधक, उपासना-उपास्य और उपासक तथा साधना-साध्य और साधक- इस प्रकार की त्रिपुटी में सर्वथा अभेद सम्बन्ध है। वस्तुतः इसी साम्यावस्था की प्राप्ति और तादात्म्य की स्थापना ही पूजा-आराधना का मूल उद्देश्य है, देवपूजा सगुण से निर्गुण एवं साकार से निराकार तक पहुँचाने की सोपान-परम्परा है।
पूजा में मन्त्रोंद्ा देवशक्तियों का आवाहन किया जाता है-‘मन्त्राधीनाश्च देवता:’ और फिर उनकी प्राण प्रतिष्ठा करके उन्हें गन्ध पुष्पादि विविध उपचार प्रदान किये जाते हैं। देवशक्तियों का मानवीकरण करके एक पूज्य अभ्यागत अतिथि की भाँति उनकी सेवा-पूजा की जाती है और उन देवशक्तियों से अभीष्ट की प्राप्ति की प्रार्थना की जाती है। देवोत्थापन के ये मन्त्र वेदों में प्रतिष्ठित हैं। प्रतिपाद्य-विषय की दृष्टि से वेदमन्त्रों के तीन विभाग यानी तीन काण्ड हैं-कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड।
देवाराधना का प्रत्यक्ष सम्बन्ध कर्मकाण्ड एवं उपासनाकाण्ड से है। वेदमन्त्रों का अधिकांश भाग कर्मकाण्ड में पर्यवसित है और नब्बे प्रतिशत से भी अधिक मन्त्रों का पूजा-यज्ञयागादि में विनियोग है। क्रिया की प्रधानता होने से इन मन्त्रों को कर्मकाण्ड के मन्त्र कहा जाता है । नित्य-नैमित्तिक तथा काम्य-तीन प्रकार के कर्मो में सर्वत्र पूजा-उपासना का ही प्राधान्य है। कोई भी मांगलिक कार्य हो, शुभकार्य हो, यज्ञ-यागादि अनुष्ठान हो, व्रतपर्वोत्सव-उद्यापन हो, उपनयन-विवाह आदि संस्कार हो-देवपूजा सर्वत्र अनिवार्य है। इस देवपूजा के प्रारम्भ में पंचांग पूजन कर्म आवश्यक है। जैसे शरीर में हाथ-पैर आदि अंग होते हैं, वैसे ही ये पंचांग कर्म प्रधान पूजा के अंगभूत हैं। विना इन्हें सम्पादित किये कोई भी शुभ कर्म नहीं किया जाता, इस प्रकार देवपूजा या यज्ञयागादि अनुष्ठानोंके तीन विभाग हैं-१. पंचांग-पूजन, २. प्रधान कर्म या प्रधान पूजा या प्रधान याग और ३. उत्तरंग पूजन । उत्तरांग पूजनमें आवाहित देवों का विसर्जन आदि होता है।
सामान्य रूप से पंचांग-पूजन के अन्तर्गत स्वस्तिवाचन-शान्तिपाठ, गणेशाम्बिकापूजन, कलशस्थापन, पुण्याहवाचन, षोडशमातृकापूजन, सप्तघृतमातृकापूजन ( वसोर्धारा ), रक्षाविधान एवं आयुष्यमन्त्रपाठ, नवर ण्डलपूजन, नान्दीमुख श्राद्ध तथा ब्राह्मणवरण समाहित हैं।
आरम्भ में मंगलाचरण की दृष्टि से स्वस्तिवाचन शान्तिपाठ किया जाता है। सम्पूर्ण कर्म की निर्विघ्न सम्पनता के लिये गणेश तथा अम्बिका का पूजन होता है। कलश स्थापित कर के उसमें वरुण आदि देवों का आवाहन होता है। इसी वरुणकलश्व के जल से बाद में अभिषेक किया जाता है। पुण्याहवाचन में ब्राह्मणों द्वारा स्वस्ति, पुण्य, कल्याण आदि से सम्बद्ध मन्त्रों का पाठ होता है, ब्राह्मण मन्त्र पाठ के साथ आशीर्वाद प्रदान करते हैं। पुण्याहवाचन की एक संक्षिप्त बौधायनीय पद्धति भी है, सुविधाके लिये उसे भी दिया गया है। गौरी, पद्मा आदि षोडशमातृका के साथ सप्तघृतमातृ का पूजन किया जाता है। रक्षाविधान में पोटलि का अथवा रक्षासूत्र की प्रतिष्ठा की जाती है, आयुष्यमन्त्रों का पाठ होता है । इसी रक्षासूत्र को कर्म के अन्त में हाथ में बाँधा जाता है-‘कर्मान्ते दक्षिणहस्ते बध्नीयात्।”
सूर्यादि नवग्रहों की प्रीति, अरिष्ट-निवारण तथा शान्ति प्राप्ति के लिये मण्डल बनाकर अथवा विना मण्डल के ही कलश में नवग्रहों का आवाहनकर उनकी पूजा होती है, नवग्रहों के साथ ही नौ अधिदेवता, नौ प्रत्यधिदेवता, पंचलोकपाल, दस दिक्पाल, वास्तोष्पति एवं क्षेत्रपाल-इस प्रकार से चौवालीस देवों का पूजन नवग्रहमण्डल में होता है। अपने पितरों की प्रीति, तृप्ति तथा उनसे आशीर्वादकी कामनासे नान्दीमुखश्राद्ध होता है, इसे आध्युदयिक या वृद्धिश्राद्ध भी कहते हैं। प्रत्येक मांगलिक कार्यमें इसका सम्पादन होता है। यह देवश्राद्ध है, अतः सभी कार्य सव्य होकर सम्पन्न होते हैं। उसी समय ब्राह्मणोंका वरण भी किया जाता है । कहीं-कहीं प्रारम्भ में ही ब्राह्मण-पूजन एवं वरण की परम्परा है।
इस प्रकार पंचांग-पूजनकर्म के प्रधान कर्मो के अन्तर्गत मुख्य रूपसे १. कलशस्थापन, २. पुण्याहवाचन, ३. रक्षाविधान ( आयुष्यमन्त्रपाठ ), ४. नवग्रह पूजन तथा ५. नान्दीमुख श्राद्ध – ये पाँच कर्म समाहित हैं।
इन सभी कर्मो को यथाविधि सम्पादित करने की सम्पूर्ण विधि इस ‘पंचांग-पूजन- पद्धति’ नामक पुस्तक में दी गयी है। मन्त्रभाग संस्कृत में है और निर्देश हिन्दी में हैं। वैदिक मन्त्रों के साथ-साथ पौराणिक मन्त्र भी दिये गये हैं। पुस्तक में परिशिष्ट के अन्तर्गत सुविधा की दृष्टि से कुशकण्डिका सहित होमविधि इत्यादि महत्त्वपूर्ण बातोंका भी समावेश किया गया है। यह पुस्तक सर्वसाधारण की जानकारी के लिये तथा कर्मकाण्ड कराने वाले विद्वज्जनों के लिये अत्यन्त उपयोगी है, इसी दृष्टि से इसे स्वतन्त्र रूप से प्रकाशित किया गया है । यथास्थान रेखाचित्र भी दिये गये हैं।
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