शतनामस्तोत्रसंग्रह [ नामावलीसहित देवी-देवताओंके चालीस शतनामस्तोत्र ]
भगवान्के अनन्त नाम हैं तथा उनके प्रत्येक नामका अपरिमित माहात्म्य भी शास्त्रों में बताया गया है =
सत्त्वशुद्धिकरं नाम नाम ज्ञानप्रदं स्मृतम् मुमुक्षूणां मुक्तिप्रदं कामिनां सर्वकामदम् ॥ (सात्वततन्त्र)
‘नाम अन्तःकरण की शुद्धि करता है, नाम ज्ञान प्रदान करता है, नाम मुमुक्षु को मुक्ति प्रदान करता है तथा कामना वालों को समस्त काम्य वस्तुओं का दान करता है।’
वेद, पुराण, शास्त्र, स्मृति आदि समस्त ग्रन्थों में नाम माहात्म्य पदे- पदे दृष्टिगोचर होता है। शास्त्र अनन्त हैं, अतः नाम-माहात्म्य का भी अन्त नहीं है। भगवान् के नाम-जप, स्मरण, चिन्तन की ही भाँति केवल नाम के द्वारा उनकी आराधना, पूजा-उपासना करने का भी शास्त्रों में विशेष रूप से वर्णन मिलता है ।
जैसे भगवान् के पूजन-अर्चन में सहस्त्रनामस्तोत्र का जप तथा सहस्त्रार्चनपूजापद्धति की विशेष प्रसिद्धि पुराणों तथा तन्त्रागमों में मिलती है, वैसे ही उन्हीं ग्रन्थों में विभिन्न देवी-देवताओं के शतनाम अथवा अष्टोत्तरशत नामजप तथा शतार्चन पूजापद्धति का भी विशेष विधान मिलता है। कारण, शतनामों द्वारा अल्प समय में ही सुगमता पूर्वक शतार्चनपूजा की जा सकती है। शतनामोंद्वारा पूजा-अर्चना करने अथवा उनका जप, पाठादि करने की अपार महिमा उन स्तोत्रों के अन्त में फलश्रुति के रूप में वर्णित है।
हमारे शास्त्रों में पंचदेवों की मान्यता पूर्ण ब्रह्म के रूप में है, इसीलिये इन पंचदेवों में से किसी एक को अपना इष्ट बनाकर उपासना करने की पद्धति है। गणेश, विष्णु, शिव, शक्ति और सूर्य- इन पंचदेवोंके अन्तर्गत सभी देवी-देवताओं का अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिये इन देवों के ‘शतनामस्तोत्र’ भक्तजनों के कल्याण के लिये अपने आर्ष ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं, जिनका पाठ भी किया जाता है तथा इनकी नामावली से अर्चा-पूजा भी की जाती है। इन देवो का शतनामार्चन विशिष्ट सामग्री द्वारा करने का अपने शास्त्रों में विधान मिलता है और उसकी विशेष महिमा भी बतायी गयी है। जैसे- विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिये गणपति का शतनामार्चन दूर्वा, लावा अथवा मोदक आदि से करने का विधान है; तुलसीदल के द्वारा भगवान् विष्णु के शतनामार्चन का विशेष महत्त्व माना गया है। इसी प्रकार भगवान् सदाशिव का शतनामार्चन बिल्वपत्रादि द्वारा करना प्रशस्त है। भगवान् सूर्यनारायण का शतनामार्चन कमल पुष्प से किया जाता है तथा भगवती दुर्गा जपापुष्प तथा कुंकुम-अक्षतादि के द्वारा शतनामार्चन करने से प्रसन्न होती हैं। इन देवों के विभिन्न अवतार भी हुए हैं और अनेक नाम रूपों में इनकी उपासना करने की विधि भी है, जैसे भगवती आदिशक्ति की आराधना सरस्वती, लक्ष्मी, अन्नपूर्णा, ललिता, भवानी, गंगा, राधा तथा सीता आदि अनेक नामरूपों में की जा सकती है। इसी प्रकार गणेश, सूर्य, शिव और विष्णु के भी अनेक नाम और स्वरूप अपने शास्त्रों में प्राप्त हैं, अतः सभी के शतनामस्तोत्र ग्रन्थों में उपलब्ध हैं।
गीताप्रेस के द्वारा पूर्व में कुछ देवों के शतनामस्तोत्र विभिन्न पुस्तकों के अन्तर्गत यत्र-तत्र प्रकाशित हुए हैं; परंतु इनका एकत्र संकलन कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। जबकि आज के व्यस्तता के युग में इसका विशेष महत्त्व प्रतीत होता है। इस बार यह प्रयास किया गया कि विभिन्न नाम-रूपों में ज्ञात देवी-देवताओं के यथासाध्य अधिकाधिक स्वरूपों के शतनामस्तोत्रों का संग्रह एक साथ प्रकाशित किया जाय। इसके साथ ही अर्चन-पूजन की सुविधा की दृष्टि से इन स्तोत्रों की नामावली भी दी गयी है। संख्या की दृष्टि से इन नामावलियों में सौ अथवा इससे अधिक भी नाम प्राप्त हैं।
पाठकों की सुविधा की दृष्टि से संग्रह को तीन खण्डों में वर्गीकृत किया गया है। प्रथम खण्ड में देवताओं तथा उनके प्रमुख अवतारों के सभी शतनामस्तोत्रों को नामावली सहित रखा गया है। द्वितीय खण्ड में दश महाविद्याओं सहित शक्ति-सम्बन्धी सभी शतनामस्तोत्र नामावली सहित समाहित हैं। तृतीय खण्ड विशेष है। इसके अन्तर्गत शिव, शक्ति, विष्णु तथा ब्रह्माके अष्टोत्तरशत दिव्य-क्षेत्रोंके चार स्तोत्र हैं। प्रत्येक दिव्य-क्षेत्र में देवता का एक विशेष नाम इस प्रकार इन अष्टोत्तरशत-दिव्यस्थानीयनामस्तोत्रों को भी नामावलियों सहित प्रथम बार प्रस्तुत किया जा रहा है। परिशिष्ट में श्रीअर्धनारीश्वर-अष्टोत्तरशत नामस्तोत्रम् नामक स्तोत्रात्मकनामावली, काशी के द्वादश आदित्यों का नाम तथा ‘प्रज्ञाविवर्धन’ नामक स्तोत्र दिया गया है।
शतनाम द्वारा उपासना के लिये सर्वप्रथम स्तो त्रके प्रत्येक नाम के प्रारम्भमें ‘प्रणव’ (ॐ) * अथवा ‘श्री’ लगानेकी विधि है तथा प्रत्येक नाम का चतुर्थ्यन्त रूप लिया जाता है अर्थात् चतुर्थी विभक्ति जो कि ‘सम्प्रदान’ कारक की बोधक होती है। किसी नाम के अन्त में चतुर्थी विभक्ति लगाने से उस नाम में ‘के लिये’ का भाव और जुड़ जाता है। फिर अन्त में नमन के भावसे ‘नमः’ जोड़ना चाहिये। इस पुस्तक में इसी प्रकार नामावली बनायी गयी है।
वैसे शतनामद्वा रा साधक चार प्रकार से उपासना कर सकते हैं– १ नमन, २-पूजन, ३-तर्पण तथा ४-हवन । प्रत्येक नाम के बाद अपनी अभीष्ट क्रिया के अनुसार निम्न चारों में से किसी एक पद का प्रयोग करना चाहिये-‘नमन’ के लिये ‘नमः’; ‘पूजन’ के लिये ‘पूजयामि’; ‘तर्पण के लिये ‘तर्पयामि’ तथा ‘हवन के लिये ‘स्वाहा’। भावप्रधान होने से नमन के लिये ‘नमः’ जोड़कर ही नामावलियाँ इस पुस्तकमें दी गयी हैं।
शतनामस्तोत्रों के पूर्व विनियोग, अंग-न्यास तथा ध्यान का मन्त्र भी यथासाध्य देने का प्रयास किया गया है, जिनका प्रयोग शतार्चनमें करना चाहिये ।
परमात्म प्रभु की प्रसन्नता के निमित्त निष्काम भाव से किया गया शतनामस्तोत्र का पाठ तथा शतार्चन अनन्त फलदायक होता है।
Reviews
There are no reviews yet.