Sri Linga Mahapuran in Sanskrit with Hindi Translation
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1985 Sri Linga Maha Puran with pictures in Sanskrit and its description in easy Hindi language by Gita Press.
जो मनुष्य इस सम्पूर्ण लिङ्गपुराण को आदिसे अन्त तक पढ़ता है अथवा सुनता है अथवा द्विजों को सुनाता है, वह परमगति प्राप्त करता है उस महात्मा की श्रद्धा मुझ ( ब्रह्मा) – में, नारायण में तथा भगवान् शिव में हो जाती है।
पुराण संख्यामें अठारह हैं, जो श्रीमद्भागवत, श्रीदेवीभागवत, विष्णुपुराण, पद्मपुराण, ब्रह्मपुराण, स्कन्दपुराण आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं। इन्हीं अठारह महापुराणोंमें श्रीलिङ्गमहापुराणका भी परिगणन है। अन्य महापुराणों के समान ही सर्गादि पंचलक्षणों का निरूपण, भक्ति, ज्ञान, सदाचार की महिमा तथा जीव का श्रेय:-सम्पादन और उसे भगवन्मार्ग में प्रतिष्ठित करा देना लिङ्गमहापुराण का तात्पर्य विषयीभूत अर्थ है। श्रीहरिके पुराणमय विग्रह में लिङ्गपुराण को भगवान्का गुल्फदेश माना गया है
“लैङ्गं तु गुल्फकम्।'(पद्मपुराण)
इस पुराण का यह नाम इसलिये दिया गया है कि इसमें परमात्मा परमशिव को लिङ्गी-निर्गुण- निराकार अर्थात् अलिङ्ग कहा गया है। यह परमात्मा अव्यक्त प्रकृति का मूल है, लिङ्ग का अर्थ है अव्यक्त अर्थात् प्रकृति-‘अलिङ्गं लिङ्गमूलं तु अव्यक्तं लिङ्गमुच्यते।’ (लिङ्गपुराण पू० १। ३ । १) ‘लिङ्ग’ शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-सबको अपने में लीन रखने वाला या विश्व के सभी प्राणि पदार्थों का उद्भावक, परिचायक चिह्न अथवा सम्पूर्ण विश्वमय परमात्मा – ‘लयन्नाल्लिङ्गमुच्यते । (लिङ्गपुराण पू० १ । १९। १६ )
प्रकृति-पुरुषात्मक समग्र विश्वरूपी वेदी या वेर तो महादेवी पार्वती हैं और लिङ्ग साक्षात् भगवान् शिवका स्वरूप है-‘लिङ्गवेदी महादेवी लिङ्गं साक्षान्महेश्वरः ‘ लिङ्ग से लिङ्गी का ख्यापन ही लिङ्गमहापुराण का विषय है। इसी विषय-वस्तु का प्रतिपादन लिङ्गपुराण में विस्तार से विविधरूपों में हुआ है।
लिङ्गपुराण दो भागों में विभक्त है-पूर्वभाग में एक सौ आठ अध्याय हैं और उत्तरभाग में पचपन अध्याय हैं। इसके पूर्वभाग में माहेश्वरयोग का प्रतिपादन, सदाशिव के ध्यान का स्वरूप, योगसाधना, भगवान् शिव की प्राप्ति के उपायों का वर्णन, भक्तियोग का माहात्म्य, भगवान् शिव के सद्योजात, वामदेव आदि अवतारों की कथा, ज्योतिर्ल्लिङ्ग के प्रादुर्भाव का आख्यान, अट्ठाईस व्यासों तथा अट्ठाईस शिवावतारों की कथा, लिङ्गार्चन-विधि तथा लिङ्गाभिषेक की महिमा, भस्म एवं रुद्राक्ष धारण की महिमा, शिलादपुत्र नन्दीश्वरके आविर्भाव का आख्यान, भुवनसनिवेश, ज्योतिश्चक्र का स्वरूप, सूर्य-चन्द्रवंश-वर्णन, शिवभक्ततण्डीप्रोक्त शिवसहस्रनामस्तोत्र, शिव के निर्गुण एवं सगुण स्वरूप का निरूपण, शिव पूजा की महिमा, पाशुपत व्रत का उपदेश, सदाचार, शौचाचार, द्रव्यशुद्धि एवं अशौच-निरूपण, अविमुक्त क्षेत्र वाराणसी का माहात्म्य, दक्ष पुत्री सती एवं हिमाद्रिजा पावतीका आख्यान, भगवान् शिव एवं पार्वती के विवाह की मांगलिक कथा तथा शिवभक्त उपमन्यु की शिवनिष्ठा आदि विषयोंका वर्णन है।
उत्तरभाग में भगवद्गुणगानकी महिमा, विष्णुभक्त के लक्षण, लक्ष्मी एवं अलक्ष्मी ( दरिद्रा)-के प्रादुर्भावका रोचक वृत्तान्त, दरिद्राके निवासयोग्य स्थान द्वादशाक्षर मन्त्रकी महिमा, पशुपाशविमोचन, भगवान् शिव एवं पार्वतीकी विभूतियोंका निदर्शन, शिवकी अष्टमूर्तियोंकी कथा, शिवाराधना, शिवदीक्षा-विधान, तुलापुरुष आदि षोडश महादानोंकी विधि जीवच्छ्राद्ध का माहात्म्य तथा मृत्युंजय- मन्त्र-विधान आदि विषय विवेचित हैं। अन्त में लिङ्गमहापुराण के श्रवण-मनन एवं पाठ की फलश्रुति निरूपित है। स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माजी इस पुराणकी महिमा बताते हुए कहते हैं –
जो मनुष्य इस सम्पूर्ण लिङ्गपुराणको आदिसे अन्ततक पढ़ता है अथवा सुनता है अथवा द्विजों को सुनाता है, वह परमगति प्राप्त करता है उस महात्माकी श्रद्धा मुझ ( ब्रह्मा) – में, नारायण में तथा भगवान् शिव में हो जाती है।“लैङ्गमाद्यन्तमखिलं यः पठेच्छणुयादपि ॥ द्विजेभ्यः श्रावयेद्वापि स याति परमां गतिम्। मयि नारायणे देवे श्रद्धा चास्तु महात्मनः ॥ (लिङ्गपुराण, उत्तर०, अ० ५५)
इस प्रकार सम्पूर्ण लिङ्गपुराण विशेष रूप से शिवोपासना में पर्यवसित है। इसमें भगवान् शिव एवं भगवान् विष्णु का अभेदत्व प्रतिपादित हुआ है। इसमें आयी स्तुतियाँ अत्यन्त गेय तथा कण्ठ करने योग्य हैं। इसके आख्यान बड़े ही रोचक और भगवद्भक्तिको स्थिर करने वाले हैं। इस पुराण में सदाचारधर्म की बड़ी प्रतिष्ठा वर्णित है और नित्यकर्मो के सम्पादन की बड़ी महिमा आयी है। इसमें आये सुभाषित बड़े ही ग्राह्य और कल्याणकारक हैं।
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